________________ से अयत्ना होती है। जहाँ अयना है, वहाँ जीवों का उपघात सिद्ध है ही। अस्तु, साधु ऐसे खाने के अयोग्य निकृष्ट पदार्थों को हाथ से ग्रहणकर एकान्त स्थान में जाए और वहाँ जाकर प्रासुक भूमि की सावधानी से प्रतिलेखनाकर यत्नपूर्वक परठ दे। इतना ही नहीं, परठकर प्रतिक्रमण भी करे। यानी इच्छाकारेण आदि प्रसिद्ध पाठ पढ़े या 'वोसिरामि-वोसिरामि' कहे, क्योंकि इस प्रकार करने से क्रिया का अवरोध भलीभाँति हो जाता है। इसी वास्ते अन्तिम 86 अंक वाली गाथा के चतुर्थ पाद में पडिक्कमे'-'प्रतिक्रामेत्' क्रियापद दिया गया है। इस क्रियापद के विषय में विशेष वक्तव्य 'एगंतमवक्कमित्ता' 61 गाथा के भाष्य में देखें। वहाँ स्पष्टतः विवेचन किया जा चुका है। यहाँ विवेचन योग्य एक बात और है। वह यह कि-चौरासीवें सूत्र में जो 'अट्ठिअं''अस्थिकं' पद दिया हुआ है। उससे वही भ्रान्ति होती है जो बहुअट्ठिअं पुग्गलं' वाली गाथा के भाष्य में कही जा चुकी है। परन्तु वास्तव में इस शब्द का यहाँ-वहाँ की भ्रान्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। यहाँ 'अस्थिक' शब्द से केवल फल की गुठली ही ली जाती है, क्योंकि अगले चरणों में स्पष्टतः तृण आदि शब्द पड़े हुए हैं। वे बतलाते है कि सूत्रकार को 'अस्थिक' शब्द से गुठली ही अभिप्रेत है। तभी तो पाठ की पूर्वापर-संगति बैठती चली जाती है; नहीं तो कैसे बैठ सकती है ? पन्नवणा सूत्र के भी प्रथम पद में और वनस्पति-अधिकार में 'एगट्ठिया' और 'बहुवीयगा' ऐसे दो सूत्र दिए हुए हैं। जिसमें 'एगट्ठिया'-'एकास्थिका' शब्द में निम्बु, आम्र. जामन हरीतकी (हरड) आदि फल ग्रहण किए गए हैं और 'बहवीयगा' शब्द में दाडिम-आनार आदि फलों का ग्रहण है। अतः सभी तरह 'अस्थिक' शब्द से गुठली का ग्रहण ही युक्तियुक्त सिद्ध होता है, अन्य का नहीं। - उत्थानिका-अब, वसति-उपाश्रय-में आकर किस प्रकार भोजन करना चाहिए ? इस विषय में कहा जाता है:सिआय भिक्खूइच्छिज्जा, सिजमागम्म भुत्तुअं। सपिंडपायमागम्म , उंडुअं पडिलेहिआ॥८७॥ स्याच्च ... भिक्षुरिच्छेत्, शय्यामागम्य भोक्तुम्। सपिण्डपातमागम्य , उन्दुकं प्रतिलेख्य॥८७॥ पदार्थान्वयः-सिया-कदाचित् भिक्खू-साधु सिजं-उपाश्रय में आगम्म-आकर ही भुत्तुअं-भोजन करना इच्छिज्जा-चाहे तो सपिण्डपायं-वह शुद्ध भिक्षा-सहित साधु आगम्मउपाश्रय में आकर उंडुअं-भोजन करने की भूमिका की पडिलेहिआ-प्रतिलेखना करके, फिर उसी स्थान पर पिण्डपात की विशुद्धि करे। ... मूलार्थ-यदि कोई विशेष कारण न हो और साधु यह चाहे कि-उपाश्रय में जाकर ही भोजन करूँ, तो शुद्ध भिक्षा लिए हुए वह साधु उपाश्रय में आए और भोजनस्थान की प्रतिलेखना करके लाए हुए भिक्षा-भोजन की विशुद्धि करे। टीका-इस गाथा में यह वर्णन है कि किसी विशेष कारण के न होने पर जब साधु की यह इच्छा हो कि-मैं उपाश्रय में जाकर ही भोजन करूँ, तो वह 'सपिण्डपात' अर्थात् शुद्ध 157 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्