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________________ अशुद्ध अशुद्धिं करता ही है। यहाँ शुद्धि से मतलब स्थान सम्बन्धी यत्ना से है, बाह्य प्रचलित लौकिक जलादि-शुद्धि से नहीं। स्थान सम्बन्धी शुद्धि का यह अर्थ है कि-साधु जिस स्थान पर भोजन करे वह स्थान ऊपर से अच्छा प्रकार ढका हुआ होना चाहिए, चाहे ढका हुआ हो तृणादि के छप्पर से ही, इसकी कोई बात नहीं। प्रतिच्छन्न स्थानक में भोजन करने से भोजन में उड़ते हुए सूक्ष्म जीव नहीं गिरने पाते। अस्तु, जब पूर्वोक्त आज्ञा की और स्थान-शुद्धि की बात ठीक हो जाए, तब साधु आहार करने से पहले अपने शरीर के हस्त-पदादि अवयवों को पूँजणी से अच्छी तरह प्रमार्जन करे; तत्पश्चात् भोजन करे। पूँजनी द्वारा शरीर-प्रमार्जन करने से एक तो, जो सूक्ष्म जीव शरीर पर चढ़े हुए हों वे उतर जाते हैं, उनकी विराधना नहीं होती। दूसरे, शरीर पर पड़े हुए सूक्ष्म रज आदि पदार्थ भी उतर जाते हैं, जिससे भोजन करते समय फिर किसी प्रकार की खुजली आदि आकुलता नहीं होने पाती / संक्षिप्त शब्दों में कहने का तात्पर्य यह है कि साधु भोजन करने की अयोग्य शीघ्रता न करे। जब भोजन करना चाहे तब बड़ी सावधानी से शान्तिपूर्वक खूब अपना विधि-विधान देख-भाल कर भोजन करे। ... वाचकवृन्द ! प्रस्तुत सूत्र में एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है / वह यह कि-सूत्र में जो 'हत्थगं'-'हस्तकं' शब्द आया है उसका अर्थ पूंजणी-रजो-हरणी किया है। परन्तु टीकाकार इसके विरूद्ध हैं। वे इस हस्तक का अर्थ 'मुखवस्त्रिका' करते हैं और उसके द्वारा शरीर का प्रमार्जन करना बतलाते हैं। तथा च टीका-'हस्तकं मुखवस्त्रिकारूपम् , आदाय इति वाक्यशेषः, सम्प्रमृज्यं विधिना तेन कायं तत्र भुञ्जीत' परन्तु टीकाकार का यह अर्थ युक्ति से समर्थित नहीं जान पड़ता, क्योंकि मुखवस्त्रिका तो सदा मुँह पर लगी रहती है। अतएव 'हस्ते भवं हस्तकं' यह व्युत्पत्ति मुखवस्त्रिका पर किसी भी रीति से नहीं लग सकती। जिन पर बिना किसी ननु-नच के लग सकती है वे रजोहरण एवं रजोहरणी ही हैं, क्योंकि उक्त दोनों पदार्थ केवल प्रमार्जन क्रिया के लिए ही रक्खे जाते हैं। प्रश्र-व्याकरणसूत्र के प्रथम संवर-द्वार में भी यह पाठ आता है'संपमज्जिऊण ससीसंकायं'। यहाँ वृत्तिकार ने 'सम्प्रमृज्य मुखवस्त्रिकारजोहरणाभ्यां सशीर्षकायं समस्तकं शरीरम' यह वत्ति लिखकर मखवस्त्रिका के साथ ही रजोहरण भी ग्रहण किया है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि प्रश्नव्याकरणसूत्र के टीकाकार को मुखवस्त्रिका की अपेक्षा प्रमार्जन के लिए रजोहरण ही उपयुक्त जान पड़ा है। मुखवस्त्रिका तो उन्होंने एक टीकाकारों की प्रथा के अनुसार ग्रहण की है। मुखवस्त्रिका तो वायुकाय के जीवों की रक्षा के लिए एवं स्वलिङ्ग के लिए ही कथन की गई है, न कि शरीर के प्रमार्जन के वास्ते। प्रमार्जन तो रजोहरणी से ही हो सकता है अतः सिद्ध हुआ कि 'हत्थगं'-हस्तकं शब्द से रजोहरणी ग्रहण करना ही सूत्र-विहित है। इस 'रजोहरणी' अर्थ को कोषकर भी स्वीकार करते हैं। देखिएजैनागम-शब्दसंग्रह (अर्द्धमागधी गुजरातीकोष) पृष्ठ 810 पर लिखा है-हत्थय, न० (हस्तक) पूँजनी। अस्तु, युक्ति-प्रमाणों से हस्तक का वास्तविक अर्थ पूँजनी ही सिद्ध होता है। टीकाकारों का कथन परतः प्रमाण है, अतः यहाँ इस अर्थ में टीका अमान्य ठहरती है। ___ उत्थानिका-अब सूत्रकार, तीन गाथाओं से इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि, यदि भोजन करते समय कण्टक आदि पदार्थ आ जाएँ तो क्या करना चाहिए ? 155 ] दशवैकालिकसूत्रम्- - [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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