________________ प्रतिलेखना करके भोजन करे। मूलार्थ-गोचरी के लिए गाँव में गए हुए साधु को कदाचित् किसी कारण वश वहाँ पर ही भोजन करने की इच्छा हो जाए, तो वह सूने-निर्जन-घर में अथवा किसी भित्ति-दीवार-के मूल-कोण-में, प्रासुक-शुद्ध-भूमि की प्रतिलेखना करके भोजन करे। टीका-इस सूत्र में यह वर्णन है कि कोई तपस्वी या बालक साधु, गोचरी के लिए गाँव में गया हुआ है। गाँव में फिरते-फिरते बहुत देर हो गई है। समय के अतिक्रमण से कड़ी भूख-प्यास या अन्य किसी ऐसे ही कारण के उपस्थित हो जाने पर, उसकी यह इच्छा हो कि, 'मैं यहीं किसी स्थान पर आहार कर लूँ'। तब उसको योग्य है कि किसी सूने घर में जाकर यत्नपूर्वक आहार कर ले। यदि कोई सूना घर न मिले तो किसी कोष्ठक की भित्ति की जड़ में यानि दीवार की आड़ में प्रासुक-निर्दोष-भूमि की प्रतिलेखना कर वहाँ पर आहार करे, किन्तु यहाँ अवश्य स्मरण रहे कि जिस स्थान पर गृहस्थ लोग भोजनादि क्रियाएँ करते हो, उस स्थान पर बैठकर साधु कदापि आहार न करे, क्योंकि वहाँ पर आहार करने से बहुत से लोगों को यह शङ्का उत्पन्न हो जाएगी कि यह साधु यहाँ आमंत्रित भोजन कर रहा है। इसलिए सूत्रकार ने शून्य गृह में तथा किसी दीवार की मूल में भोजन करने को कहा है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, वहाँ पर किस प्रकार भोजन करे ? यह कहते हैं:अणुन्नवित्तु मेहावी, पडिच्छन्नम्मि संवुडे। हत्थगं संपमज्जित्ता, तत्थ भुंजिज संजए॥८३॥ अनुज्ञाप्य मेधावी, प्रतिच्छन्ने संवृतः। हस्तकं सम्प्रमृज्य, तत्र भुञ्जीत संयतः॥८३॥ पदार्थान्वयः- मेहावी-बुद्धिमान् संजए-साधु अणुनवित्तु-गृहस्थ की आज्ञा लेकर पडिच्छन्नम्मि-प्रतिच्छादन किए हुए-ढके हुए-स्थानक.में हत्थगं-रजोहरणी द्वारा शरीर के हस्तपदादि अवयवों को संपमज्जित्ता-सम्यक् प्रकार से प्रमार्जन कर संवुडे-उपयोगपूर्वक तत्थ-वहाँ भुंजिज-भोजन करे। मूलार्थ-बुद्धिमान् साधु का कर्तव्य है कि-जब पूर्व प्रसंग से भोजन करने की इच्छा हो, तब गृहस्थ की आज्ञा लेकर पूंजणी से अपने शरीर के अवयवों को सम्यक्तया प्रमार्जन करके तृणादि से आच्छादित स्थानक में उपयोग पूर्वक भोजन करे। टीका- इस गाथा में आहार करने की विधि प्रतिपादित है। जब साधु किसी शून्य गृह में अथवा किसी भित्ति के मूल में आहार करने लगे, तब उसे एक तो, प्रथम गृहस्थ की आज्ञा अवश्य लेनी चाहिए क्योंकि बिना गृहस्थ की आज्ञा लिए भोजन करने में जैन-धर्म की हीलना-निन्दना-आदि अनेक प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं, जिनके कहने की आवश्यकता नहीं, जो विचारशीलों के स्पष्टतः विचारगम्य हैं। दूसरे, जिस स्थान पर भोजन करना है, उस स्थान की शुद्धि का भी अवश्य ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि शुद्धिरहित स्थान अशुद्ध होता है; पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [154