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________________ टीका- जब वह पानी किसी प्रकार से भी काम न आ सके, तो फिर उस पानी को एकान्त स्थान पर जाकर, अचित्त भूमि को आँखों से खूब अच्छी तरह देखकर तथा रजोहरणादि द्वारा प्रतिलेखना करके बड़ी यत्ना के साथ परठ देना-गिरा देना चाहिए और विधिपूर्वक परठ देने के बाद उस पानी को वोसिरा' देना चाहिए अर्थात् परठकर वोसिरे-वोसिरे'-'व्युत्सृजामिव्यत्सृजामि' इस प्रकार मुख से कहना चाहिए। यद्यपि वृत्तिकार 'प्रतिक्रामेत्' क्रियापद के अर्थ में 'ईर्यापथिकाम्' ईरियाबहिया का ध्यान करे इस प्रकार लिखते हैं; यथा–प्रतिष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिक्रामेदीर्यापथिकाम्, एतच्च बहिरागतनियमकरणसिद्धं प्रतिक्रमणमबहिरपि प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रमणज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः। परन्तु 'प्रतिक्रामेत' क्रियापद का अर्थ पीछे हटना है अर्थात परठकर 'वोसिरामि वोसिरामि' कहना यही अर्थ युक्तिसंगत प्रतीत होता है, क्योंकि जब दैवसिक प्रतिक्रमण किया जाता है, तब दिन में लगे हुए सब अतिचारों की विधिपूर्वक आलोचना की ही जाती है। सूत्रगत 'पानी' शब्द उपलक्षण है। इससे इसी प्रकार के अन्य मल आदि पदार्थों का भी ग्रहण हो जाता है। अस्तु , परठने लायक सभी वस्तुओं के लिए यही विधि है। जो वस्तु परठनी हो, उसे एकान्त निर्जीव स्थान पर परठे और परठकर प्रतिक्रमण अर्थात् वोसिरे करे। ... यहाँ सूत्र में जो 'एकान्त स्थान' शब्द आया है, उससे यह मतलब है कि-जहाँ गृहस्थों का आना-जाना न होता हो, ऐसा स्थान, क्योंकि चौड़े-चौड़े खुले स्थान पर परठी हुई वस्तु गृहस्थों के देखने में आती है। उससे गृहस्थों को साधुओं के प्रति अप्रीति होती है। वे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के दृष्टि-बिन्दुओं से वस्तु के योग्य-अयोग्य का विचार न करके अपने मन में यही भाव लाते हैं कि देखो, ये कैसे साधु हैं ? हम गृहस्थों के यहाँ से चीजें ला-लाकर इस प्रकार गिरा देते हैं। न अपने काम में लाते और न हमारे काम की छोड़ते ! साधु बन गए तो क्या, हुआ पर जीभ तो वश में न हुई। दूसरा शब्द 'अचित्तस्थान की प्रतिलेखना' है। उसका भाव यह है कि जो अयोग्य वस्तु परठनी हो, उसे यत्न पूर्वक खूब देख-भालकर जहाँ त्रस-स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की घात न होती हो, ऐसे अचित्त स्थान पर परठे, क्योंकि अयत्ना के साथ बिना देखे-भाले परठ देने से जीवों की विराधना होती है। उससे प्रथम अहिंसा-व्रत दूषित हो जाता .. उत्थानिका- अब सूत्रकार, अन्न-पानी की ग्रहण-विधि के कथन के बाद भोजनविधि के विषय में कहते हैं:सिआ य गोयरग्गगओ, इच्छिज्जा परिभुत्तु। कुट्टगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहित्ताण फासुअं॥८२॥ स्याच्च गोचराग्रगतः, इच्छेत् परिभोक्तुम्। कोष्ठकं भित्तिमूलं वा, प्रतिलेख्य प्रासुकम्॥४२॥ पदार्थान्वयः-गोयरग्गगओ-गोचरी के लिए गया हुआ साधु सिआ-कदाचित् परिभुत्तुअंवहाँ पर ही भोजन करने की इच्छिज्जा-इच्छा करे य-तो कुट्ठगं-शून्य गृह आदि में वा-अथवा भित्तिमूलं-मठ आदि की भित्ति के मूल में फासुअं-प्रासुक-जीव रहित स्थान की पडिलेहित्ताण 153 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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