________________ विचारणा के साथ अवलोकन करें: प्रश्न- पूर्व सूत्र का कथन सर्वांश में ठीक है। ऐसा दूषित पानी कदापि नहीं लेना चाहिए। फिर भी मनुष्य के पीछे भूल लगी हुई है। कभी-कभी यह भूल से बचते-बचते भी सहसा भूल में आ जाता है और उसी काम को कर बैठता है। अस्तु, भूल से या गृहस्थ के विशेष आग्रह से (कभी ऐसा अवसर आ जाता है कि गृहस्थ के आग्रह की उपेक्षा करने से धर्म में बड़ी हानि हो जाती है) इच्छा न होते हुए भी, यदि कभी दूषित जल ग्रहण कर लिया जाए तो फिर क्या करना उचित है ? उस जल को स्वयं पीए या दूसरे साथी साधुओं को दे ? दोनों कामों में से एक काम तो करना ही होगा, अतः वह क्या करे ? इसका उत्तर होना चाहिए। . उत्तर- दोनों में से एक काम भी न करना चाहिए; अर्थात् न तो खुद पीए और न दूसरे साधुओं को पीने के लिए दे, क्योंकि दूषित जल को चाहे खुद पीए चाहे कोई दूसरा पीए, केवल हानि ही हानि है, लाभ कुछ नहीं। दूषित जल-पान से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। सो रूग्णावस्था में संयम-रक्षा व आत्म-रक्षा कहाँ तक किस रूप में हो सकती है ? यह सब जानते ही हैं / अतः उसके लिखने की कुछ आवश्यकता नहीं। साधु स्वपर-हितार्थी होते हैं। वे अपने में और दूसरे में कुछ भेद नहीं समझते। जिस प्रकार वे अपनी रक्षा का ध्यान रखते हैं, ठीक उसी प्रकार दूसरों की रक्षा का भी ध्यान रखते हैं। साधुओं की यह वृत्ति नहीं होती कि वे अपनी बेगार दूसरों पर गिराएँ। अतएव उन्हें दूसरे साधुओं को भी यह दूषित पानी नहीं देना चाहिए। यहाँ शङ्का हो सकती है कि- यदि उस पानी की किसी को आवश्यकता ही हो तो . फिर क्या करना चाहिए ? देना चाहिए या नहीं ? उत्तर में कहा जाता है कि- यदि कोई गीतार्थ साधु उस पानी को माँगता हो, तो साधु उस पानी के विषय में अपनी तरफ से कहने योग्य कुछ कह कर उसको दे सकता है। यदि कोई अगीतार्थ माँगता हो तो उसे कदापि नहीं देना चाहिए। गीतार्थ और अगीतार्थ में यही अन्तर होता है कि गीतार्थ उचित-अनुचित, हित-अहित का पूर्ण ज्ञाता होता है और अगीतार्थ नहीं। उत्थानिका- अब सूत्रकार, इस विषय में कहते हैं कि जब वह पानी किसी को भी न दिया जाए, तो फिर क्या करना चाहिए ? एगंतमवक्कमित्ता , अचित्तं, पडिलेहिआ। जयं परिविज्जा, परिठ्ठप्प पडिकम्मे॥८१॥ एकान्तमवक्रम्य , अचित्तं प्रतिलेख्य। यतं परिष्ठापयेत् , परिष्ठाप्य प्रतिक्रामेत्॥७१॥ __पदार्थान्वयः- एगंतं-एकान्त स्थान पर अवक्कमित्ता-जाकर अचित्तं-जीव रहित स्थान की पडिलेहिआ-प्रतिलेखना करके जयं-यत्नपूर्वक परिद्वविजा-पानी को परठ दे-गिरा दे परिट्ठप्प-परठकर पडिक्कमे-ईर्यापथिकी का ध्यान करे। . मूलार्थ- एकान्त स्थान पर जाकर, अचित्त स्थान की प्रतिलेखना करके, यत्नपूर्वक उस पानी को गिरा दे और गिराकर प्रतिक्रमण करे। .. पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [152