________________ तच्च अत्यम्लं पूति (तं), नालं तृष्णां विनेतुम्। ददती. प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥७९॥ पदार्थान्वयः- च-फिर तं-उस अच्चंबिलं-अत्यन्त खट्टे पूअं-सड़े हुए तिण्हं-तृषा विणित्तए-शान्त करने के लिए नालं-असमर्थ पानी को दितिअं-देने वाली स्त्री से पडिआइक्खेकहे कि मे-मुझे तारिसं-इस प्रकार का दूषित पानी ग्रहण करना न-नहीं कप्पइ-कल्पता है। ... मूलार्थ-फिर भी यदि दातार स्त्री आग्रह करके इस प्रकार का खट्टा, सड़ा हुआ, प्यास बुझाने के लिए अयोग्य पानी देने लगे, तो साधु उस देने वाली से स्पष्ट कह दे कि इस प्रकार का दूषित पानी मुझे ग्रहण करना नहीं कल्पता है। टीका- इस सूत्र में यह वर्णन है कि- यदि कोई अनभिज्ञ दातार स्त्री, ऐसे दूषित पानी के लेने का आग्रह करने लगे तो साधु को चाहिए कि वह उस देने वाली से साफ कह दे कि यह आग्रह समयोचित नहीं है। ऐसा पानी मैं नहीं ले सकता। पानी तषा मिटाने के लिए लिया जाता है, न कि गिराने के लिए। इसमें कौन-सा लाभ होगा कि मैं तेरे यहाँ से ले जाऊँ और फिर गिराता फिरूँ। इस पानी से पानी की गरजना का पूरा होना, तू भी जानती है- सर्वथा असम्भव है। ऊपर की इस स्पष्टोक्ति का सारांश यही है कि- आहार-पानी के विषय में साधु स्पष्टतया से काम ले। किसी प्रकार की दबा-दबी न रक्खे। दबा-दबी के काम में मायाचारी अवश्य करनी पड़ती है। जब मायाचारी आ गई तो फिर साधुता कहाँ ? असावधानी के कारण एक दोष ही आगे चलकर अनेकनिक दोषों का कारण हो जाता है। उत्थानिका-अब सूत्रकार, यदि कभी ऐसा पानी ले ही लिया हो, तो साधु फिर क्या करे ? यह कहते है:तंच होज्ज अकामेणं, विमणेणं पडिच्छि। तं अप्पणा न पिबे, नोवि अन्नस्स दावए॥८०॥ तच्च भवेत. अकामेन, विमनस्केन प्रतीप्सितम्। तदात्मना न पिबेत्, नोऽप्यन्यस्में दापयेत्॥८०॥ ___ पदार्थान्वयः-च-यदि अकामेणं-बिना इच्च्छा से, अथवा विमणेणं-बिना मन से तं-कदाचित् उक्त पानी को पडिच्छिअं-ग्रहण कर लिया हो तो तं-उस जल को, साधु अप्पणास्वयं न पिबे-न पीए अन्नस्स वि-दूसरों को भी नो दावए-पीने के लिए न दे अर्थात् न पिलाए। मूलार्थ- यदि पूर्वोक्त अग्राह्य पानी बिना इच्छा के और बिना मन के अर्थात् असावधानी से ग्रहण कर लिया हो, तो साधु का कर्तव्य है कि उस जल को न तो स्वयं पीए और न दूसरों को पिलाए। टीका-पूर्व सूत्र में यह बतलाया जा चुका है कि साधु , दूषित पानी कदापि न ग्रहण करे; साफ कह दे कि यह पानी मैं नहीं ले सकता। दूषित पानी के लेने से कुछ लाभ नहीं। अब यह दूसरा सूत्र है। इसके प्रश्न और उत्तर के रूप में दो खण्ड होते हैं। पाठक दोनों का सूक्ष्म 151 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्