SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नित्यप्रति की धार्मिक क्रियाओं में गड़बड़ का होना अपने-आप सिद्ध है। अस्तु , इस उत्तरोत्तर की गड़बड़ से बचने के लिए मुनि को अपने खान-पान के कामों में अवश्य ही सदा सतर्क रहना चाहिए। उत्थानिका-अब सूत्रकार, चखने के लिए पानी किस प्रकार से, क्या कहकर ले, यह कहते हैं:थोवमासायणट्टाए , हत्थगम्मि दलाहि मे। मा मे अच्चंबिलं पूअं, नालं तिण्हं विणित्तए॥७८॥ स्तोकमास्वादनार्थम् , हस्तके देहि मे। मा मे अत्यम्लं पूति (तं), नालं तृष्णां विनेतुम्॥७८॥ पदार्थान्वयः-आसायणट्ठाए-आस्वादन के लिए थोवं-थोड़ा-सा पानी मे-मुझे हत्थगम्मि-हाथ में-अंजली में दलाहि-दे, क्योंकि अच्चंबिलं-अत्यन्त खट्टा, पूअं-सड़ा हुआ तिण्हं-तृषा को विणित्तए-निवृत्त करने में नालं-असमर्थ पानी मे-मुझे मा-नहीं अनुकूल है। __ मूलार्थ हे बहन ! चखने के लिए थोड़ा-सा पानी मुझे हाथ में दो, क्योंकि अतीव खट्टा, सड़ा हुआ, प्यास नहीं मिटाने वाला जल मुझे अनुकूल नहीं पड़ता। टीका- इस गाथा में यह वर्णन है कि जिस जल के विषय में यह शङ्का हो जाए कि यह जल खट्टा है-सड़ा हुआ है-प्यास बुझाने लायक नहीं है, तो साधु देने वाली से कह दे कि हे बहन ! यह जल थोड़ा-सा चखने के लिए मुझे अंजली में दो, ताकि मैं निर्णय कर लूँ कि यह जल किसी प्रकार से दूषित तो नहीं है। क्योंकि पान किया हुआ दूषित पानी पिया हुआ शरीर में विकार उत्पन्न करता है। अतः ऐसे पानी को लेकर मैं क्या करूँगा ? इस ऊपर के कथन से स्पष्ट सिद्ध है कि-जो पदार्थ अनुपयोगी हो-विकार-जनक हो, उसे मुनि कदापि ग्रहण न करे।शङ्कित पदार्थ की उसी स्थान पर परीक्षा कर ले, जिससे फिर उसे गिराना न पड़े, क्योंकि गिराने में प्राय अयत्ना हो जाने की संभावना रहती है। सूत्रकर्ता ने जो 'आस्वादन' पद दिया है, वह व्यक्त करता है कि-देय पदार्थ की योग्यता-अयोग्यता का निर्णय करने में साधु गृहस्थ के यहाँ किसी प्रकार का लज्जा-भाव एवं संकोच न करे। जिस रीति से निर्णय हो सकता हो, साधु को उसी रीति का अवलम्बन करना चाहिए। सूत्रकार ने सूत्र में केवल पानी के लिए ऐसा कहा है, इससे यह मतलब नहीं निकाल लेना चाहिए कि केवल पानी का ही इस प्रकार निर्णय करे, अन्य का नहीं। यह पानी उपलक्षण है। इससे इसी भाँति के अन्य पदार्थ को भी ग्रहण कर लेना चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, यदि कोई दातार स्त्री आग्रह करके ऐसा पानी देने लगे तो फिर साधु क्या करे ? यह कहते हैं:तंच अच्चंबिलं पूअं, नालं तिण्हं विणित्तए। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥७९॥ पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [150
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy