________________ किधर थे ? क्या कर रहे थे ? आदि आदि बातों पर पूर्ण ध्यान दे। यदि इससे ठीक तौर से कुछ पता न चले तो फिर धौत जल को देखे। देखकर निर्णय करे कि जल का रूप-रंग किस प्रकार का है ? जल में विलोडितता-चलितता-है या नहीं ? यादि चलितता है तो वह किस कारण को लिए हुए है ? यदि इतने पर भी आशङ्का बनी ही रहे तो दातार गृहस्थ से या अन्य समीपस्थ अबोध बच्चों आदि से प्रश्रोत्तर करके निर्णय करे। कहने का सारांश यह है कि जब पूर्णरूप से पूछताछ आदि करने पर 'यह धोवन साधु-मर्यादा योग्य प्रासुक-निर्जीव-है और अधिक समय का हो चुका है' यह निश्चय हो जाए, तब तो साधु उस धोवन-पानी को ग्रहण करे, नहीं तो नहीं। तत्काल के धोवन-पानी में प्रासुकता की-जीव-रहितता की-बुद्धि रखना स्पष्टतः शास्त्र-असम्मत है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, जल को चखकर निर्णय करने के विषय में कहते है:अजीवं परिणतं नच्चा, पडिगाहिज्ज संजए। अहसंकियं भविज्जा, आसाइत्ताण रोअए॥७७॥ अजीवं परिणकं ज्ञात्वा, प्रतिगृह्णीयात् संयतः। अथ शङ्कितं भवेत्, आस्वाद्य रोचयेत्॥७७॥ पदार्थान्वयः- प्रासुक जल को पूर्णतया अजीवं-अजीव-भाव को परिणयं-परिणत हुआ नच्चा-जानकर संजए-साधु पडिगाहिज-ग्रहण करे (अन्यथा नहीं) अह-यदि किसी अन्य प्रासुक जल के विषय में अरुचिता आदि की संकियं-शङ्का भविजा-हो जाए तो आसाइत्ताण-आस्वादन कर करके चख करके रोअए-निश्चय करे। - मूलार्थ- साधु , अजीव-भावपरिणत पूर्ण प्रासुक जल ही ग्रहण करे। यदि किसी अन्य प्रासुक जल के विषय में यह शङ्का हो जाए कि यह जल मेरी प्रकृति के अनुकूल नहीं पड़ेगा तो चखकर लेने-न-लेने का निश्चय करे। टीका-इस गाथा में अन्य प्रासक जल के विषय में वर्णन किया गया है। प्रासक जल साध के लिए ग्राह्य है। परन्त कब ग्राह्य है ? जबकि वह पूरे तौर से जीवरहित-प्रासक-हो चका हो तब। इसका निर्णय भी उन्हीं पर्व सत्रोक्त बद्धि-दर्शन-प्रश्र आदि उपायों से करना चाहिए। ग्राह्य-अग्राह्य सम्बन्धी सन्देह की अवस्था में किसी चीज़ के लेने के लिए हाथ बढ़ाना आत्माभिमानी-व्रता-भिमानी-जैन साधु के लिए सर्वतोभावेन वर्जित है। . अब सूत्रकार ने गाथा के पिछले दो चरणों में यह बतलाया है कि जल के विषय में प्रासुकतासम्बन्धी तो किसी प्रकार की शङ्का नहीं रही हो; अच्छी तरह यह निर्णय हो चुका हो कि यह जल प्रासुक है-शुद्ध है। अतः इसके लेने में कोई आपत्ति नहीं। परन्तु यदि यह शङ्का हो जाए कि यह जल दुःस्वादु-विरस अरुचिकर है। अतः यह मेरी शारीरिक प्रकृति के अनुकूल नहीं पड़ेगा, तो उस समय दातव्य जल को चख करके अपनी शङ्का की सत्यता-असत्यता का ज्ञान करे। गृहस्थ के यहाँ ही ऐसे चखकर निर्णय करने में साधु को कोई दोष नहीं लगता। शरीर की उपमा यंत्र से दी जाती है। अतः शरीर के लिए जिस प्रकार अन्न की शुद्धता का ध्यान रक्खा जाता है, उसी प्रकार उससे भी बढ़कर जल की शुद्धता का ध्यान रखना चाहिए। दूषित जल के पीने से स्वास्थ्य में गड़बड़ हुए बिना नहीं रह सकती। जब स्वास्थ्य में गड़बड़ हो गई तो फिर 149 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्