________________ अप्पे सिया भोयणजाए, बहुउज्झियधम्मिए / दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥७४॥युग्मम् वह्वस्थिकं पुद्गलम्, अनिमिषं वा बहुकण्टकम्। अस्थिकं तिन्दुकं बिलवम्, इक्षुखण्डं वा शाल्मलिम्॥७३॥ अल्पस्याद् भोजनजातम्, बहूज्झनधर्मकम् / / ददतीं प्रत्यचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥७४॥ पदार्थान्वयः- बहुअट्ठियं-बहुत गुठलियों वाला पुग्गलं-पुद्गल नामक फल विशेष अणिमिसं-अनिमिष नामक फलविशेष वा-अथवा बहुकंटयं-बहुत काँटों वाला फल अस्थियंअस्थिक वृक्ष का फल तिंदुअं-तिन्दुक वृक्ष का फल बिल्लं-बिल्व नामक वृक्ष का फल उच्छुखंडंइक्षुखण्ड व-तथा सिंबलिं-शाल्मली वृक्ष का फल भोयणजाए-जिनमें खाने लायक भाग तो अप्पे-अल्प सिया-हो बहुउज्झियधम्मिए-गिराने लायक भाग बहुत अधिक हो, ऐसे फल कोई देने लगे तो साधु दितिअं-देने वाली से पडिआइक्खे-कह दे कि मे-मुझे तारिसं-इस प्रकार का आहार न कप्पई-नहीं कल्पता है। मूलार्थ- बहुत अधिक गुठलियों वाले-बीजों वाले-पुद्गल फल, अनिमिष फल, बहत काँटों वाले फल, अस्थिक फल, तिन्दक फल, बिल्व फल(बेल), गन्ने की गनेरियाँ तथा शाल्मली फल आदि-ऐसे पदार्थ जिनमें खाने लायक भाग तो थोड़ा हो और गिराने लायक भाग अधिक हो तो साधु ग्रहण न करे और देने वाली से स्पष्ट कह दे कि ये पदार्थ मेरे योग्य नहीं, अतः मैं नहीं लेता। टीका- इस गाथा में यह वर्णन है कि-अपने और पर के तारने वाले मुनियों को, जिन फलों का भाग खाने में तो थोड़ा आता हो और गिराने में अधिक आता हो ऐसे उपर्युक्त 'पुद्गल फल' आदि फलों का सेवन कभी नहीं करना चाहिए। क्योंकि अखाद्य भाग के परिष्ठापन से अयत्ना होने की बहुत संभावना है। सूत्रकार की विषय-प्रतिपादन-शैली कह रही है कियावन्मात्र पदार्थ जो खाने में थोडे आते हों और गिराने में अधिक आते हों, वे सभी आग्राह हैं। फलों के नामों का जो उल्लेख किया है वह उदाहरण रूपेण सूचनामात्र है। इससे सूत्रोक्त फल ही अग्राह्य हैं. यह बात नहीं। कच्चे फलों का निषेध तो पहले ही किया जा चका है। अत: यहाँ साध ऐसे अधिक गिराने के लायक फल न सही, यदि अधिक खाने में आने लायक कच्चे फल हों, फिर लेने में कोई हरज नहीं, यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता है। प्रस्तुत 'बहुअट्ठियं पुग्गलं' सूत्र में जो 'अणिमिसं-अनिमिष' शब्द दिया हुआ है, उसका अर्थ मांस नहीं समझना चाहिए क्योंकि मांस का अर्थ सर्वथा प्रकरण विरूद्ध है। देखिए , गाथा के उत्तर के दोनों चरणों में बेल, ईख आदि फलों के नाम स्पष्टतया परिकथित हैं। अतः निर्धान्त सिद्ध है कि पूर्व के दोनों चरणों में भी वनस्पति का ही स्पष्ट अधिकार है। यह प्रकृति देवी का लीला-क्षेत्र संसार बड़ा ही विचित्र है। यहाँ देखने वाले जहाँ देखेंगे, वहाँ विचित्रता ही देखेंगे। यहाँ की कोई भी बात ऐसी नहीं है, जिसमें किसी प्रकार की विचित्रता न पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [146