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________________ बिक्कायमाणं पसढं, रएण परिफासिअं। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥७२॥युग्मम् तथैव सक्तुचूर्णान् , कोलचूर्णान् आपणे। शष्कुलिं फाणितं पूपम् , अन्यद्वाऽपि तथाविधम्॥७१॥ विक्रीयमाणं प्रसह्यम् , रजसा परिस्पृष्टम्। ददतीं / प्रत्यचक्षीत , न मे कल्पते तादृशम्॥७२॥ पदार्थान्वयः- तहेव-इसी तरह आवणे-बाजार में दुकानों पर विक्कायमाणं-बेचने के लिए पसढं-प्रकटरूप से रक्खे हुए रएण-रज से परिफासिअं-सने हुए सत्तुचुन्नाइं-यव आदि सत्तु का चून कोलचुन्नाइं-बेरों का चून सक्कुलिं-तिल-पापड़ी फाणियं-द्रवगुड़-राव पुयं-पूड़ारोटी अन्नं वावि-और भी तहाविहं-तथा विध इसी प्रकार के पदार्थ मोदक आदि, यदि साधु को देने लगे तो साधु दितिअं-देने वाली को पडिआइक्खे-कह दे कि मे-मुझे तारिसं-इस प्रकार के पदार्थ लेने न-नहीं कप्पइ-कल्पते हैं। मूलार्थ- इसी तरह बाजार में दुकानों पर बिक्री के लिए प्रकट रूप से रक्खे गए, सचित्त रज से मिश्रित सत्तू -चूर्ण, बदरीफल-चूर्ण, तिल-पापड़ी, ढीला गुड़,पूड़ा तथा अन्य भी ऐसे ही त्वड्ड-जलेबी आदि खाद्य पदार्थ यदि साधु को मिलते हों, तो साधुनले और देने वाली से कह दें कि ये पदार्थ मेरे योग्य नहीं हैं। टीका-इस सूत्र में यह वर्णन है कि बाजार में बिकते हुए सत्तु, तिल-पापड़ी, गुड़ आदि खाद्य पदार्थ सचित्त धूल से भरे हुए हों, तो साधु न ले (यदि साफ-शुद्ध-हों तो साधुवृत्ति के अनुसार ले सकता है)। ऊपर के सूत्र से सिद्ध होता है कि, प्राचीन काल में भी अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ तैयार किए जाते थे और वे बाजार में दुकानों पर ग्राहकों को यथोचित मूल्य पर बेचे जाते थे। बेचने वाले दुकानदार प्रायः भव्य एवं भद्र परिणामी होते थे। अतः वे पैसा नहीं रखने वाले संतमहात्माओं को भी कभी-कभी अवसर मिलने पर बिना किसी इच्छा के धर्म-बुद्धि से यथायोग्य दान देकर महान् लाभ उठाया करते थे। .. यहाँ सूत्रगत एक बात और भी विचारणीय-मननीय-है जो इतिहासज्ञ सज्जनों के लिए बड़ी ही कीमती है। वह यह है कि इसी 72 वे सूत्र में 'दितिअं' शब्द आया है, जिसका अर्थ होता है देने वाली / अस्तु , इस शब्द से यह नि:संदेह सिद्ध हो जाता है कि-प्राचीन काल में पुरुषों की भाँति स्त्रियाँ भी बाजारों में दुकानों पर कुशलता पूर्वक क्रय-विक्रय किया करती थीं। उस समय उनका यह कार्य समाज में निन्दित नहीं समझा जाता था। उत्थानिका- अब सूत्रकार, आहार के विषय में और भी विस्तृत विवेचना करते हैं:बहुअट्ठियं पुग्गलं, अणिमिसंवा बहुकंटयं। अत्थियं तिंदुअं बिल्लं, उच्छुखंडं व सिंबलिं॥७३॥ 145 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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