________________ आहार को ग्रहण न करे)। मूलार्थ- पूर्वोक्त निश्रेणी आदि द्वारा दुःखपूर्वक ऊपर चढ़ने से दातार स्त्री के गिर जाने से हाथ-पैर आदि अङ्ग-भंग हो जाने की तथा पृथ्वीकायिक एवं पृथ्वीआश्रित जीवों की हिंसा हो जाने की एक निश्चित-सी आशङ्का रहती है। अतः इस अवस्था में साधु आहार-पानी ग्रहण न करे। टीका-निश्रेणी आदि से आरोहण की क्रिया करने से एक तो कष्ट होता है। दूसरेअस्थिरता के कारण दातार के गिर जाने की और गिर जाने से हाथ-पैर आदि अंगों के भंग हो जाने की संभावना रहती है। तीसरे-गिरने से सचित्त पृथ्वी के जीवों की और पृथ्वी के आश्रित त्रस जीवों की हिंसा की भी निश्चित आशङ्का है, क्योंकि जिस समय मनुष्य कहीं से गिरता है तो वह अपने वश में नहीं रहता। वह बिल्कुल परवश हो जाता है। उसमें हिताहित के ज्ञान से फिर सँभल जाने की शक्ति नहीं रहती। गिरने पर चाहे उसे खुद को किसी प्रकार का कष्ट हो, चाहे किसी तटस्थ प्राणी को कष्ट हो, कष्ट की आशङ्का अवश्य है। सूत्र में जो 'दुरूहमाणी' स्त्री लिङ्ग का निर्देश किया है, उसका अभिप्राय यह है कि-प्रायः स्त्रियों को ही भिक्षा देने का विशेष अवसर मिला करता है। तथा-पूर्व ६७वीं गाथा में 'दायकः' पुंलिङ्ग शब्द का और इस प्रस्तुत ६८वीं गाथा में 'दुरूहमाणी' स्त्रीलिङ्ग का जो निर्देश किया है। वह इस बात का द्योतक है कि चाहे स्त्री हो, चाहे पुरुष हो, चाहे नपुंसक हो, जो अयत्ना से चढ़ेगा, उसी के गिरने की संभावना है। गिरने में किसी लिङ्गविशेष की बात नहीं रहती। उत्थानिका- अब सूत्रकार, स्वयं ही एतत्सम्बन्धी दोषों को दिखलाकर अपने ही शब्दों में स्पष्टतया प्रतिषेध करते हैं:एआरिसे महादोसे, जाणिऊण महेसिणो। तम्हा मालोहडं भिक्खं, न पडिगिण्हंति संजया॥६९॥ एतादृशान् महादोषान् , ज्ञात्वा महर्षयः। तस्मान्मालापहृतां भिक्षाम् , न प्रतिगृह्णन्ति संयताः॥६९॥ * पदार्थान्वयः-संजया-शास्त्रोक्त संयम के पालक महेसिणो-महर्षि लोग एआरिसेइस प्रकार के महादोसे-महादोषों को जाणिऊण-जानकर तम्हा-दोषों की निवृत्ति के लिए मालोहडं-मालापहृत-ऊपर के मकान से निसेणी आदि द्वारा उतारकर लाई हुई भिक्खं-भिक्षा को न पडिगिण्हंति-नहीं ग्रहण करते। - मूलार्थ-संयतात्मा-महामुनि, पूर्वोक्त महादोषों को सम्यक्तया जानकर कदापि मालापहृत अर्थात् ऊपर के मकान से सीढ़ी आदि से उतारकर लाई हुई भिक्षा ग्रहण नहीं करते। टीका- इस गाथा में यह प्रतिषेध है कि जो पूर्ण संयम के धारक महर्षि हैं, वे इस प्रकार मालापहृत आहार-पानी ग्रहण नहीं करते। क्योंकि इस प्रकार से लाई हुई अयोग्य भिक्षा, महान् से महान् दोषों की उत्पादिका होती है। महान् दोषों की किस प्रकार उत्पादिका है ? यह पहली 'दुरूहमाणी' गाथा में बतलाया जा चुका है। अतः जिज्ञासु पाठक वहाँ देखें। इस 143 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्