________________ तरह स्थिर न हों-डगमगाती हों- तो फिर भूलकर भी न जाए, क्योंकि इस प्रकार के गमन में अपने गिरने से अन्य जीवों के उपमर्दन से असंयम होने की सम्भावना है। इसी प्रकार समस्त इन्द्रियों से समाधिभाव रखने वाला मुनि, अन्य भी प्रकाशरहित तथा जिनके नीचे पोल हों ऐसे दोषदूषित मार्गों से गमन न करे, क्योंकि यहाँ पर भी पूर्वोक्त दोषों की आशङ्का है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, निश्रेणी के विषय में कहते हैं:निस्सेणिं फलगं पीढं, उस्सवित्ताणमारुहे / मंचं कीलंच पासायं, समणट्ठा एव दावए॥६७॥ निश्रेणिं फलकं पीठम्, उत्सृत्य आरोहेत्। मञ्चं कीलं च प्रासादम्, श्रमणार्थमेव दायकः॥१७॥ पदार्थान्वयः- यदि, दावए-दान देने वाला व्यक्ति समणट्ठा एव-केवल साधु के लिए ही निस्सेणिं-निसेणी को फलगं-फलक-पाटिया को पीढं-पीठ-चौंकी-को मंचं-मंच-पलंग को च-तथा कोलं-कीलक को उस्सवित्ताणं-ऊँचा करके पासायं-प्रासाद के ऊपर आरूहे-चढ़े। मूलार्थ- यदि कोई व्यक्ति केवल साधु के ही लिए निश्रेणी, फलक, पीठ, मंच और कीलक को ऊँचा करके प्रासाद पर चढ़े, (और साधु को आहार दे, तो साधु न ले)। टीका-इस सूत्र में इस बात का कथन है कि-जब साधु भिक्षार्थ गृहस्थ के घर पर जाए, तब कोई गृहस्थ यदि केवल साधु के लिए ही दातव्य वस्तु उतारने के लिए उपर्युक्त निश्रेणी-सीढ़ी-आदि वस्तुओं को ऊँची करके-खड़ी करके-प्रासाद पर चढ़कर आहारादि देने लगे तो साधु को वह आहार नहीं लेना चाहिए। क्यों नहीं लेना चाहिए ? इसका उत्तर अग्रिम सूत्र में सूत्रकार स्वयं ही देने वाले हैं, अत: यहाँ कुछ नहीं कहते।। उत्थानिका- अब सूत्रकार, इस प्रकार चढ़ने से जो दोष होते हैं उनका वर्णन करते हैं: दुरूहमाणी पवडेज्जा, हत्थं पायं व लूसए। पुढविजीवे वि हिंसिज्जा, जे अतन्निस्सिया जगे॥१८॥ दुरारोहन्ती प्रपतेत्, हस्तं पादं वा लूषयेत्। पृथिवीजीवानपि हिंस्यात्, ये च तनिश्रिता जगति॥१८॥ पदार्थान्वयः-दुरूहमाणी-आहार देने वाली स्त्री दुःखपूर्वक ऊपर चढ़ती हुई कदाचित् पवडेजा-गिर पड़े, जिससे हत्थं-अपने हाथ च-और पायं-पैरों को लूसए-लूषित-खण्डितकरे, साथ ही पुढविजीवे वि-पृथ्वी-कायिक जीवों की भी हिंसिज्जा-हिंसा करे अ-च-और भी जे-जो तन्निस्सिया-पृथ्वी के आश्रित जगे-संसार में जीव हैं उनकी भी हिंसा करे। (अतः उस पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [142