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________________ डालकर अग्नि प्रज्वलित करे अथवा जल से या अन्य किसी मिट्टी आदि से अग्नि बुझा दे तथा अग्नि पर रक्खे हुए पात्र में से अधिक जानकर अन्न निकाल ले या उफनता हुआ जानकर पात्र में जल के छींटे देकर शान्त कर तथा अग्नि पर जो पात्र रक्खा हुआ हो उसमें से अन्नादि पदार्थ निकालकर अन्य पात्र में रख दे या दग्ध होने के भय से पात्र को ही अग्नि पर से उतार ले। सारांश यह है कि दातार इत्यादि क्रियाएँ करके साधु को आहार-पानी देने लगे तो साधु को नहीं लेना चाहिए, क्योंकि इत्यादि क्रियाओं से अयत्ना की वृद्धि होती है और साधु की जो निर्दोष आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा है, वह भंग होती है। इतना ही नहीं, किन्तु उक्त क्रियाएँ शीघ्रतापूर्वक करने से आत्म-विराधना और संयम-विराधना होने की भी पूरी-पूरी संभावना है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, विशेष विधि के विषय में कहते हैं:हुज्ज कटुं सिलं वावि, इट्टालं वावि एगया। ठवियं संकमट्ठाए, तं च होज चलाचलं॥६५॥ ण तेण भिक्खू गच्छेज्जा, दिह्रोतत्थ असंजमो। गंभीरं झुसिरं चेव, सव्विंदिअसमाहिए ॥६६॥यु. भवेत् काष्ठं शिला वाऽपि, इष्टिका वाऽपि एकदा। स्थापितं संक्रमार्थम् , तच्च भवेत् चलाचलम्॥६५॥ न तेन . भिक्षुर्गच्छेत् , दृष्टस्तत्र असंयमः। गम्भीरं शुषिरं चैव, सर्वेन्द्रियसमाहितः // 66 // पदार्थान्वयः- एगया-कभी वर्षा आदि के समय पर कटुं-काष्ठ वावि-अथवा सिलं-शिला वावि-अथवा इट्टालं-ईंट संकमट्ठाए-संक्रमण के वास्ते ठवियं-स्थापित किया हुआ हुज्ज-हो च-और तं-वह काष्ठादि चलाचलं-चलाचल-अस्थिर होज-हो तो भिक्खूसाधु तेण-उस काष्ठादि द्वारा ण गच्छेज्जा-न जाए, क्योकि तत्थ-वहाँ पर गमन करने से असंजमोअसंयम दिट्ठो-देखा गया है सव्विंदिअसमाहिए-सम्पूर्ण इन्द्रियों द्वारा समाधिभाव रखने वाला मुनि चैव-अन्य भी गंभीरं-प्रकाशरहित झुसिरं-अन्त:सार रहित-पोले-मार्ग से भी गमन न करे। - मूलार्थ- वर्षा आदि के समय काष्ठ, शिला वा ईंट आदि वस्तु संक्रमण के लिए रक्खी हुई हों और वे अस्थिर हों तो- साधु उस मार्ग से गमनागमन न करे, क्योंकि ऐसा करने से असंयम की संभावना है तथा समस्त इन्द्रियों द्वारा समाधित मुनि, अन्य भी अन्धकारमय और पोले आदि मार्गों से गमन न करे। टीका- वर्षा आदि के समय पर मार्ग प्रायः कीचड़ से दुर्गम्य-खराब-हो जाते हैं। अतः लोग कीचड़ से बचने के उद्देश्य से मार्ग के संक्रमण के लिए काष्ठ, शिला अथवा ईंट आदि चीजें मार्ग में स्थापित कर दिया करते हैं / अस्तु, यदि वह स्थापित काष्ठ आदि पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित-स्थिर-हों तो साधु उनके ऊपर से चला जाए , कोई दोष नहीं और यदि वे अच्छी 141 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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