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________________ अकल्पनीय भवे-होता है, अतः दितिअं-देने वाली से पडिआइक्खे-कह दे कि मे-मुझे तारिसंइस प्रकार का आहार-पानी न-नहीं कप्पइ-कल्पता है। मूलार्थ- अन्न-पानी, खाद्य तथा स्वाद्य पदार्थ, सचित्त जल पर या कीड़ी आदि के नगर पर रक्खे हुए हों तो वे पदार्थ साधु को अग्राह्य होते हैं। अतः मुनि, देने वाली स्त्री से कह दे कि यह आहार मेरे योग्य नहीं है। मैं नहीं ले सकता। टीका-जैन साधु अहिंसा की पूर्ण प्रतिज्ञा वाला होता है। अतः उसे अपनी प्रत्येक क्रियाओं में सर्वतोव्यापिनी सूक्ष्म दृष्टि से अहिंसा की महती प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए। अस्तु, जो अशनादि चतुर्विध आहार कच्चे जल पर या कीड़ी प्रमुख के नगर पर रक्खा हुआ हो तो साधु उसे न ले और देने वाले को साफ लेने से नहीं कर दे। नहीं लेने का कारण यह है किइस प्रकार आहार लेने से जीवों की विराधना होती है। जीवों की विराधना से संयम की विराधना स्वयं-सिद्ध ही है। जब संयम की ही विराधना होगी तो संयमपना कहाँ रहा ? प्रतिज्ञा के विषय में असावधानी रखना प्रतिज्ञा वाले के लिए बहुत बुरी बात है। मामूली-सी असावधानी का परिणाम अन्ततो-गत्वा' बड़ा कटु होता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, अग्नि-प्रतिष्ठित पदार्थों के लेने का निषेध करते हैं:असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। तेउम्मि हुज्ज निक्खित्तं, तंच संघट्टिया दए॥६१॥ तं भवे भत्तपाणं तु , संजयाण अकप्पि। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥२॥युग्मम् अशनं पानकं वाऽपि, खाद्यं स्वाद्यं तथा। तेजसिभवेत् निक्षिप्तं , तं च संघव्य दद्यात्॥११॥ तद्भवेद् भक्तपानन्तु, संयतानामकल्पिकम् / ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥६२॥ ___पदार्थान्वयः-असणं-अन्न पाणगं-पानी वावि-अथवा खाइम-खाद्य तहा-तथा साइम-स्वाद्य पदार्थ तेउम्मि-तेजस्काय अग्नि पर निक्खित्तं-रक्खा हुआ हुज्ज-हो च-वातं-उस अग्नि को संघट्टिया-संघट्टा करके दए-दे तु-तो तं-वह भत्तपाणं-अन्न-पानी संजयाण-साधुओं को अकप्पिअं-अकल्पनीय भवे-होता है, अतः दितिअं-देने वाली से पडिआइक्खे-कह दे कि मे-मुझे तारिसं-इस प्रकार का आहार-पानी न-नहीं कप्पइ-कल्पता है। मूलार्थ- यदि अशनादि चतुर्विध आहार अग्नि पर रक्खा हुआ हो, अथवा दातार अग्नि से संघट्टा करके दे तो साधु को वह पदार्थ नहीं लेना चाहिए और दातार से कह देना चाहिए कि यह आहार मेरे अयोग्य है; अतः मैं नहीं लेता। टीका-यदि कोई महानुभाव अग्नि पर रक्खे हुए अन्न आदि पदार्थ को तथा अग्नि से दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम् 139 ]
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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