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________________ से उम्मीसं-उन्मिश्र-मिला हुआ हो तु-तो तं-वह भत्तपाणं-अन्न-पानी संजयाण-साधुओं को अकप्पिअं-अकल्पनीय भवे-होता है, अतः दितिअं-देने वाली से पडिआइक्खे-कह दे कि तारिसं-इस प्रकार का आहार-पानी मे-मुझे न-नहीं कप्पइ-कल्पता है। मूलार्थ- यदि अन्न-पानी, खाद्य तथा स्वाद्य पदार्थ पुष्पों-से, बीजों से तथा हरित दूर्वा आदि से मिश्रित हों तो वह अन्न-पानी साधुओं के अयोग्य होता है। अतः देने वाली से साधु साफ कह दे कि यह पदार्थ मुझे लेना नहीं कल्पता है। टीका- इस सूत्र-युग्म में यह वर्णन है.कि यदि कोई दातार, साधु पुष्पादि सचित्त पदार्थों से मिश्रित आहार-पानी देने लगे तो साधु उस आहार-पानी को ग्रहण न करे और देने वाले गृहस्थ से स्पष्टतया कह दे कि-यह आहार-पानी मेरे योग्य नहीं है, अतः मैं नहीं ले सकता। नहीं लेने का कारण यह है कि-साधु पूर्ण अहिंसावादी होता है। अतः वह न तो स्वयं पुष्पादि सचित्त पदार्थों का स्पर्श करता है और न उन-सचित्त पदार्थों से स्पर्शित आहार-पानी आदि पदार्थ ग्रहण कर सकता है। दातार को आहार लेने से नहीं कहने का कारण यह है किजब दातार गहस्थ को इस प्रकार दोष को बतलाकर स्पष्टत: नहीं न कर दी जाएगी, तब एक तो उसको साधु ने मुझसे आहार क्यों नहीं लिया ? क्या कारण हुआ ? मैं बड़ा अभागी हूँ। भला मेरे जैसे पापियों से साधु आहार कैसे ले सकते हैं ? इत्यादि विचारों से दुःख होता है। दूसरे उसको साधु-विधि का भलीभाँति बोध हो जाता है। प्रथम 'आसणं पाणगं वा' सूत्र में 'पुप्फेसु बीएसु' आदि शब्दों में जो सप्तमी विभक्ति ग्रहण की गई है, वह तृतीया विभक्ति के अर्थ में है। __उत्थानिका- अब सूत्रकार, सचित्त जल-प्रतिष्ठित पदार्थों के लेने का निषेध करते असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। उदगम्मि हुज निक्खित्तं, उत्तिंगपणगेसु वा॥५९॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं।' दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥६०॥युग्मम् अशनं पानकं वाऽपि, खाद्यं स्वाद्यं तथा। उदके भवेत् निक्षिप्तम् , उत्तिङ्गपनकेषु वा॥५९॥ तद्भवेद् भक्तपानन्तु, संयतानामकल्पिकम् / ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥६०॥ पदार्थान्वयः- असणं-अन्न पाणगं-पानी वावि-अथवा खाइम-खाद्य तहा-तथा साइम-स्वाद्य पदार्थ उदगम्मि-जल पर वा-अथवा उत्तिंगपणगेसु-कीड़ी प्रमुख के नगर पर निक्खित्तं-रक्खा हुआ हुज्ज-हो-तु-तो तं-वह पदार्थ संजयाण-साधुओं को अकप्पिअंहिन्दीभाषाटीकासहितम् / [138 पञ्चमाध्ययनम् ]
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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