________________ उद्गमं तस्य च पृच्छेत् , कस्यार्थं केन वा कृतम्। श्रुत्वा निःशङ्कितं शुद्धम् , प्रतिगृह्णीयात् संयतः॥५६॥ पदार्थान्वयः- संजए-साधु अ-फिर सन्देह होने पर से-उस शङ्कित अन्न-पानी की उग्गमं-उत्पत्ति के विषय में पुच्छिज्जा-पूछे कि-यह आहार कस्सट्ठा-किसके लिए वा-और केण-किसने कडं-तैयार किया है सुच्चा-यदि दातार का उत्तर सुनकर वह आहार निस्संकियंनिःशंकित सुद्धं-शुद्ध मालूम पड़े तो पडिगाहिज-ग्रहण करे–नहीं तो नहीं। मूलार्थ- पूर्वोक्त आहारादि में शङ्का हो जाने पर साधु, दातार से उस शङ्कित आहार की उत्पत्ति के विषय में पूछे कि यह आहार किस लिए और किसने तैयार किया है ? इस प्रकार पूछने पर यदि वह आहार शंका रहित एवं निर्दोष जान पड़े तो साधु ग्रहण करे-अन्यथा नहीं। टीका- इस गाथा में बतलाया गया है कि- आहार लेते समय साधु को आहार के विषय में किसी प्रकार की अशुद्धि की आशङ्का हो जाए तो साधु बिना दातार से पूछ-ताछ कर . निर्णय किए उस आहार को कदापि न ग्रहण करे। यदि गृह स्वामी दातार से पूर्णतया निर्णय न हो सके तो अन्य नासमझ बालक-बालिका आदि से पूछकर निर्णय करे। मतलब यह है कि सर्वथा निःशंकित होने की चेष्टा करे, क्योंकि शंकायुक्त आहार का लेना साधु के लिए सर्वथा अयोग्य है। क्यों अयोग्य है ? इस प्रश्न के विषय में यह बात है कि इस प्रकार संदेहयुक्त पदार्थों को लेने से साधु की आत्मा में दुर्बलता आ जाती है। जब आत्मा में दुर्बलता-प्रतिज्ञाहीनता आ गई तो फिर साधुता कहाँ ? दुर्बलता और साधुता का तो परस्पर महान् विरोध है। - उत्थानिका- अब सूत्रकार, बीजादि-मिश्रित अशनादि पदार्थों के लेने का निषेध करते हैं: असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। पुप्फेसु हुज्ज उम्मीसं, बीएसु हरिएसुवा॥५७॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥५८॥युग्मम् अशनं पानकं वाऽपि, खाद्यं स्वाद्यं तथा। पुष्पैर्भवेदुन्मिश्रम् , बीजैर्हरितैर्वा // 7 // तद्भवेद् भक्तपानन्तु, संयतानामकल्पिकम् / ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥५८॥ पदार्थान्वयः- असणं-अन्न पाणगं-पानी वावि-अथवा खाइम-खाद्य तहा-तथा साइम-स्वाद्य पदार्थ, यदि पुप्फेसु-पुष्पों से बीएसु-बीजों से वा-अथवा हरिएसु-हरित-दुर्वादि 137 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्