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________________ कोई अज्ञानी पुरुष स्वाभाविक रूप से अपने हृदय में यह बात अङ्कित कर बैठता है कि, प्रत्येक साधु के लिए बना हुआ भोजन प्रत्येक मुनि ले सकता है। अतः अब भविष्य में इनके लिए भी तैयार करके भोजन (इनको) दे दिया जाएगा तथा उनके अन्तराय वा परस्पर वैमस्यभाव के भी उत्पन्न होने की आशङ्का है। ___ उत्थानिका- अब सूत्रकार, इसी आशंका को मुख्य रखते हुए फिर इसी आहारविधि के विषय में प्रकरणोचित वर्णन करते हैं: उद्देसियं कीअगडं, पूइकम्मं च आहडं। अज्झोअरपामिच्चं , मीसजायं विवज्जए॥५५॥ औद्देशिकं क्रीतकृतम् , पूतिकर्म च आहृतम्। अध्यवपूरकं प्रामित्यम् , मिश्रजातं विवर्जयेत्॥५५॥ पदार्थान्वयः- उद्देसियं-साधु का निमित्त रखकर तैयार किया हुआ कीअगडं-साधु के निमित्त मोल लिया हुआ च-और पूइकम्म-निर्दोष आहार आधा-कर्मी का संयोग मिला हुआ आहडं-ग्रामादि से साधु के निमित्त लाया हुआ अज्झोअर-मूल आहार में साधु का निमित्त रखकर उसमें और प्रक्षेप किया हुआ पामिच्चं-निर्बल से छीनकर साधु को देना च-तथा मीसजायं-साधु के और अपने वास्ते साधारण-सम्मिलित-रूप से तैयार किया हुआ आहार-पानी विवज्जए-साधु छोड़ दे-ग्रहण न करे। मूलार्थ-औद्देशिक आहार, क्रीतकृत आहार, पूतिकर्म आहार, आहृत आहार, अध्यवपूरक आहार, प्रामित्य आहार और मिश्रजात आहार इत्यादि प्रकार के आहारों को साधु वर्ज दे। टीका-इस सूत्र में इस बात का प्रकाश किया गया है कि साधु को निम्नलिखित सात प्रकार का आहार नहीं लेना चाहिए। 1. औद्देशिक आहार-केवल साधु का ही निमित्त रखकर तैयार किया हुआ आहार / 2. क्रीतकृत-साधु के लिए मोल लिया हुआ-खरीदा हुआआहार / 3. पूतिकर्म-आधाकर्मी आहार के स्पर्श से दूषित निर्दोष आहार। 4. आहृत-साधु के उपाश्रय में लाकर देना वा साधु के लिए अन्य ग्रामादि से मँगवा कर देना। 5. अध्यवपूरकसाधु की याद आ जाने पर अपने लिए बनाए हुए आहार को और मिला कर बढ़ा देना। 6. प्रामित्य-साधु के लिए निर्बल से छीना हुआ आहार।७. मिश्रजात-अपने और साधु के लिए सम्मिलित रूप से तैयार किया हुआ आहार। उपर्युक्त आहार इसलिए नहीं लेने चाहिए, क्योंकि इस प्रकार के आहार लेने से साधु की वृत्ति भंग हो जाती है और साथ ही जो अहिंसादि व्रत ग्रहण किए हुए हैं, उनमें शिथिलता आ जाता है। ___उत्थानिका-अब उद्गमादि दोषों की शंका दूर करने के लिए कहते हैं:उग्गमं से अ पुच्छिज्जा, कस्सट्ठा केण वा कडं। सुच्चा निस्संकियं सुद्धं, पडिगाहिज संजए॥५६॥ पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [136
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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