________________ योग्य नहीं है, अतः मैं नहीं ले सकता। टीका- उक्त दोनों गाथाओं में याचकों के लिए जो भोजन तैयार किया गया हो, साधु को उसके लेने के लिए निषेध किया गया है। कारण वे ही है जो पूर्व गाथाओं के विवरण में कहे जा चुके हैं। उत्थानिका- अब सूत्रकार, जो भोजन श्रमणों के लिए तैयार किया गया है, उसके विषय में निर्णयात्मक कथन करते हैं: असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जंजाणिज्ज सुणिज्जा वा, समणट्ठा पगडं इमं॥५३॥ तं भवे भत्तपाणं तु , संजयाण अकप्पिअं। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥५४॥युः अशनं पानकं वाऽपि, खाद्यं स्वाद्यं तथा। यजानीयात् शृणुयाद्वा, श्रमणार्थं प्रकृतमिदम्॥५३॥ तद्भवेद् . भक्तपानन्तु, संयतानामकल्पिकम् / ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥५४॥ __ पदार्थान्वयः- असणं-अन्न पाणगं-पानी वावि-अथवा खाइम-खाद्य पदार्थ तहातथा साइम-स्वाद्य पदार्थ जं-यदि जाणिज-आमंत्रणादि से स्वयमेव जान ले वा-अथवा सुणिज्जाकिसी अन्य से सुन ले कि इमं-यह पदार्थ समणट्ठा-श्रमणों के अर्थ पगडं-बनाया गया है तु-तो तं-वह भत्तपाणं-भोजन और पानी संजयाण-साधुओं को अकप्पिअं-अकल्पनीय भवे-होता है, अतः दितिअं-देने वाली से पडिआइक्खे-कह दे कि मे-मुझे तारिसं-इस प्रकार का भोजनपानी न कप्पइ-नहीं कल्पता है। मूलार्थ- अन्न-पानी, खाद्य और स्वाद्य पदार्थ को साधु स्वयमेव या किसी से सुनकर यह जान ले कि ये पदार्थ श्रमणों के वास्ते तैयार किए गए हैं, तो वे पदार्थ साधु को अकल्पनीय होते हैं। अतः देने वाली स्त्री से स्पष्ट कह दे कि-ये पदार्थ मुझे लेने नहीं कल्पते हैं। . टीका- उक्त दोनों गाथाओं में- श्रमणों के लिए जो भोजन तैयार किया गया हो, साधु को उसके लेने के लिए निषेध किया गया है। यद्यपि 'श्रमण' शब्द जैन भिक्षुओं के लिए भी प्रायः जैन सूत्रों में व्यवहृत होता है तथापि श्रमण' शब्द शाक्य आदि भिक्षुओं के लिए उनके शास्त्रों में व्यवहृत होता है, क्योंकि वे अपने-आपको 'श्रमण' कहते हैं / इसी लौकिक दृष्टि से यहाँ पर भी 'श्रमण' शब्द शाक्य आदि भिक्षुओं के लिए ही प्रयुक्त किया है। अतः शाक्यादि श्रमणों के वास्ते बनाए गए भोजन को सदा प्रसन्नात्मा साधु कष्टतम काल में भी कदापि ग्रहण न करे, कारण कि उसके ग्रहण करने से अनेक दोषों के उत्पन्न होने की संभावना है। जैसे कि१३५ ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्