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________________ करते हैं। ' तब वे लोग साधु को पुण्य की भावना से ही भिक्षा देते हैं। तो इस से यह सिद्ध होता है कि साधु को किसी भी कुल में भिक्षा के लिए न जाना चाहिए ? इसका समाधान यह है कि- जो अशनादि पदार्थ केवल पुण्य के अर्थ ही कल्पित किए हुए हैं, सूत्र-कर्ता ने उन्हीं का निषेध किया है, किन्तु जो गृहस्थ लोग साधु को अपने खाने में से संविभाग करता है; जिसके कारण से वह निर्जरा वा पुण्य रूप फल को उपार्जन करता है, उसका निषेध नहीं है / अतः सिद्ध हुआ कि, केवल पुण्य के अर्थ ही कल्पित किया हुआ पदार्थ मुनि नहीं ले सकता। जैसे कि मृत्यु के समय बहुत से लोग म्रियमाण पुरुष से संकल्प करवाया करते हैं। यहाँ यदि दूसरी शङ्का यह की जाए कि- दान और पुण्य में क्या अन्तर है जो सूत्रकार ने दोनों को पृथक्-पृथक् लिखा है ? तो समाधान में कहना है कि-लोग दान प्रायः यश-कीर्ति आदि के लिए करते हैं और पुण्य आमतौर पर परलोक के वास्ते करते हैं। एतदर्थ सूत्रकार ने भी लौकिक प्रथा के अनुसार दोनों को पृथक्-पृथक् रूप से ग्रहण किया है। वैसे तो ये दोनों नाम पर्यायवाची ही हैं। उत्थानिका- अब सूत्रकार, मुख्यतया याचकों के वास्ते ही जो भोजन तैयार किया गया है, उसके विषय में कहते हैं:असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। ... जंजाणिज्ज सुणिज्जा वा, वणिमट्ठा पगडं इमं॥५१॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥५२॥युः अशनं पानकं वाऽपि, खाद्यं स्वाद्यं तथा। यजानीयात् शृणुयाद्वा, वनीपकार्थप्रकृतमिदम् // 51 // तद्भवेद् भक्तपानन्तु, संयतानामकल्पिकम् / ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥५२॥ पदार्थान्वयः- असणं-अन्न पाणगं-पानी वावि-अथवा खाइम-खाद्य पदार्थ तहातथा साइमं-स्वाद्य पदार्थ जं-यदि जाणिज्ज-आमंत्रणादि से स्वयमेव जान लेवा-अथवा सुणिज्जाकिसी अन्य से सुन ले कि इमं-यह पदार्थ वणिमट्ठा-याचकों के लिए पगडं-बनाया गया है तु-तो तं-वह भत्तपाणं-भोजन और पानी संजयाण-साधुओं को अकप्पिअं-अकल्पनीय भवे-होता है, अत: दितिअं-देने वाली से पडिआइक्खे-कह दे कि मे-मुझे तारिसं-इस प्रकार का भोजनपानी न कप्पइ-नहीं कल्पता है। मूलार्थ- अन्न-पानी, खाद्य और स्वाद्य पदार्थों के विषय में साधु स्वयमेव या किसी से सुनकर यह जान ले कि ये पदार्थ याचकों के वास्ते तैयार किए गए हैं तो वे पदार्थ साधु को अकल्पनीय हैं। अतः देने वाली स्त्री से स्पष्ट कहें कि- भोजन-पानी मेरे पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 134
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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