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________________ नहीं ले सकता, क्योंकि यह केवल दान के निमित तैयार किया गया है।' 'स्पष्टभाषी सदा सुखी'। .. प्राचीन प्रतियों में उक्त द्वितीय गाथा का प्रथम पद'तं भवे भत्तपाणं तु' कथन किया है। किन्तु वृहद्वृत्तिकार वा दीपिकाकार उक्त गाथा का प्रथम पद 'तारिसं भत्तपाणं तु' लिखते हैं। लेकिन अगली गाथाओं को देखने से निश्चय होता है कि 'तं भवे भत्तपाणं तु' पद ही समीचीन है, क्योंकि प्रायः प्राचीन प्रतियों में विशेषतया यही पद ग्रहण किया है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, जो भोजन केवल पुण्य के लिए ही तैयार किया है, उसके विषय में वर्णन करते हुए कहते हैं: असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जंजाणिज्ज सुणिज्जा वा, पुण्णट्ठा पगडं इमं // 49 // तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥५०॥युग्मम् अशनं पानकं वाऽपि, खाद्यं स्वाद्यं तथा। यजानीयात् शृणुयाद्वा, पुण्यार्थं प्रकृतमिदम्॥४९॥ तद्भवेद् भक्तपानन्तु, संयतानामकल्पिकम् / ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥५०॥ पदार्थान्वयः-असणं-अन्न पाणगं-पानी वावि-अथवा खाइम-खाद्य पदार्थ तहातथा साइमं-स्वाद्य पदार्थ जं-यदि जाणिज-आमंत्रणादि से स्वयमेव जान लेवा-अथवा सुणिज्जाकिसी अन्य से सन ले कि इमं-यह पदार्थ पण्णा -पुण्य के अर्थ पगडं-बनाया गया है-त-तो तं-वह भत्तपाणं-भोजन और पानी संजयाण-साधुओं को अकप्पिअं-अकल्पनीय भवे-होता है, अतः दितिअं-देने वाली को पडिआइक्खे-कह दे कि मे-मुझे तारिसं-इस प्रकार का अन्नपानी नं कप्पइ-नहीं कल्पता है। मूलार्थ- अन्न-पानी, खाद्य और स्वाद्य पदार्थ, जिसको स्वयमेव वा अन्य किसी से सुनकर साधु यदि यह जान ले कि वह पदार्थ पुण्य के वास्ते बनाया गया है, तो वह अन्न-पानी साधुओं को अग्राह्य है। अतः साधु देने वाली से कह दे कि मुझे इस प्रकार का अन्न-पानी नहीं कल्पता है। टीका- इस गाथा-युग्म में इस विषय का प्रकाश किया है कि जो अशनादि पदार्थ पुण्यार्थ बनाए गए हों, साधु उन्हे ग्रहण न करे और देने वाली से भी स्पष्ट कह दे कि 'मैं यह आहार-पानी नहीं ले सकता, क्योंकि मैं किसी की आत्मा को अन्तराय नहीं करना चाहता। मेरी वृत्ति ऐसी भिक्षा लेने की है ही नहीं। यह बात नहीं कि मैं तुम्हारे यहाँ से ही ऐसे जा रहा हूँ। मैं सभी के यहाँ ऐसा किया करता हूँ। ___ यहाँ यदि यह शङ्का की जाए कि-शिष्ट कुलों में साधु जब भिक्षा के लिए जो जाते हैं, 133 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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