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________________ विराधना की संभावना न हो, तो कारणवश अपवाद-मार्ग में इस प्रकार खुलवा कर योग्य पदार्थ लिया जा सकता है; परन्तु लिया जा सकता है अचित्त पदार्थ हटाकर ही, सचित्त नहीं। उत्थानिका-अब सूत्रकार, इस विषय का वर्णन करते हैं कि जो भोजन केवल दान के लिए ही तैयार किया गया हो, तो उस विषय में साधु को क्या करना चाहिए:असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, दाणट्ठा पगडं इमं॥४७॥ तारिसं भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥४८॥युग्मम् अशनं पानकं वाऽपि, खाद्यं स्वाद्यं तथा। यजानीयात् शृणुयाद्वा, दानार्थं प्रकृतमिदम्॥४७॥... तादृशं भक्तपानन्तु, संयतानामकल्पिकम् / ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥४८॥ पदार्थान्वयः-असणं-अन्न पाणगं-पानी वावि-अथवा खाइम-खाद्य-मोदक प्रमुख तहा-तथा साइम-स्वाद्य-लवंग प्रमुख कोई पदार्थ जं-यदि जाणिज-स्वयमेव जान ले वाअथवा सुणिज्जा-किसी अन्य से सुन ले कि इमं-यह पदार्थ दाणट्ठा-दान के लिए पगडं-बनाया गया है तु-तो तारिसं-इस प्रकार का भत्तपाणं-आहार-पांनी संजयाण-साधुओं को अकप्पियंअकल्पनीय है, अतः दितिअं-देने वाली से पडिआइक्खे-कह दे कि में-मुझे तारिसं-इस प्रकार का आहार-पानी न-नहीं कप्पइ-कल्पता है। - मूलार्थ- अन्न-पानी, खाद्य वा स्वाद्य पदार्थ को स्वयमेव जान लिया हो अथवा सुन लिया हो कि यह पदार्थ दान के लिए ही तैयार किया गया है, तो इस प्रकार का अन्न-पानी साधुओं को लेना उचित नहीं है। अतः भावितात्मा साधु देने वाली स्त्री से साफ-साफ कह दे कि, इस प्रकार का अन्न-पानी मुझे नहीं कल्पता है। टीका- जब साधु भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर पहुँचे तब उसे स्वयमेव या किसी अन्य के द्वारा यह मालूम हो जाए कि-'यह ओदनादि अन्न, द्राक्षादि का पानी, मोदक आदि खाद्य पदार्थ तथा हरीतकी वा इलायची आदि स्वाद्य पदार्थ अमुक गृहस्थ ने केवल दान के लिए ही तैयार किए हैं तब साधु को वे पदार्थ कदापि न लेने चाहिए। कारण कि दान लेने वालों का अन्तराय पड़ता है। साधु की वृत्ति गृहस्थ के द्वादश व्रतों में यथा संविभाग व्रत में वर्णन की गई है। साथ ही इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उक्त चारों प्रकार के आहार प्रासुक ही लेने चाहिए। यहाँ पर तो केवल दान के कारण से वे निषिद्ध कथन किए गए हैं। अस्तु, यदि कोई स्त्री हठात् पूर्वोक्त आहार-पानी साधु को देने ही लगे तो साधु को बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्ट कह देना चाहिए कि-'हे बहन ! क्यों हठ करती हो ? इस प्रकार का अन्न पानी मैं कदापि पञ्चमाध्ययनम् ] * हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [132
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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