________________ उत्थानिका- अब शास्त्रकार, आहार-पानी के विषय में और भी कुछ प्रतिबन्ध कहते हैं:- .. दगवारेण पिहिअं, नीसाए पीढएण वा। लोढेण वावि लेवेण, सिलेसेण व केणइ॥४५॥ तंच उब्भिंदिआ दिज्जा, समणट्ठाए व दावए। दितिअं. पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥४६॥युग्मम् उदकवारेण * पिहितम्, निःसारिकया पीठकेन वा। लोष्ठेन वाऽपि लेपेन, श्रेषेण वा केनचित्॥४५॥ तच्च उद्भिद्य दद्यात्, श्रमणार्थं वा दायकः। ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥४६॥ ____पदार्थान्वयः- दगवारेण-पानी के घड़े से वा-अथवा नीसाए-पत्थर की पेषणी से पीढएण-पीठ-चौंकी से वावि-अथवा लोढेण-शिलापुत्र से, तथा लेवेण-मिट्ठी आदि के लेप से सिलेसेण-लाख आदि से व-अथवा केणइ-अन्य किसी भी वस्तु से पिहिअं-ढका हुआ हो च और तं-उस ढके हुए आहार-पानी को समणट्टाए-साधु के लिए ही उब्भिंदिआ-खोलकर दावए-देने वाला गृहस्थ दिज्जा-दे, तब दितिअं-देने वाले के प्रति पडिआइक्खे-कहे मे-मुझे * तारिसं-इस प्रकार का अन्न-पानी न कप्पइ-नहीं कल्पता है। मूलार्थ-पानी के घड़े से, पत्थर की पेषणी से, चौंकी से, शिलापुत्र से, मिट्टी के लेप से, लाख आदि की मुद्रा से अथवा अन्य किसी वस्तु से आहार-पानी यदि ढका हुआ हो और उसको साधु के ही निमित्त से उघाड़ कर यदि दाता उस आहार-पानी को दे तो साधु, दाता से कह दे कि इस प्रकार का आहार-पानी मुझे नहीं कल्पता है। टीका-ऊपर जिन पदार्थों से आहार-पानी ढका हुआ बतलाया गया है, उनमें सचित्त वा अचित्त दोनों ही पदार्थों का ग्रहण है। सचित्त तो पहले ही वर्जनीय है और जो अचित्त पदार्थं हैं वे भी इस गाथा द्वारा वर्जनीय हैं। यद्यपि यहाँ पर सिले हुए पदार्थों का मूल में वर्णन नहीं है तथापि उपलक्षण से वे भी ग्रहण किए जाते हैं। अस्तु, गृहस्थ जब केवल साधु के लिए ही उन भाजनों को खोलकर वा सिले हुए को तोड़कर साधु को आहार-पानी देने लगे, तब देने वाले गृहस्थ से साधु स्पष्ट कह दे कि-'हे भद्र ! इस प्रकार से आहार-पानी मुझे लेना नहीं योग्य है, क्योंकि जब तुम मेरे निमित्त ही खोल कर अमुक वस्तु मुझे देने लगे हो तो उक्त भाजनों को मृत्तिकादि द्वारा तुम्हें फिर लिप्त आदि करना पड़ेगा, जिससे फिर हिंसा होने की संभावना है। इसके अतिरिक्त सिला हुआ पदार्थ यदि किसी अन्य का निकल आए तो फिर उनको संक्लेश उत्पन्न हो जाने की संभावना है। इसलिए साधु को उक्त कृत्यों से बचना चाहिए। इससे सिद्ध हआ कि जिसमें हिंसा. अयत्ना वा विवादादि के कारण उपस्थित हो जाने की आशंका हो तो वह भिक्षा भी साधु को नहीं लेनी चाहिए। यदि किसी प्रकार की आत्म-विराधना वा संयम१३१ ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्