________________ मो चाहे मूलार्थ-बालक-बालिका को स्तनपान कराती हुई स्त्री, उन रोते हुए बालकबालिका को नीचे भूमि पर रखकर साधु को आहार-पानी दे तो वह आहार-पानी साधु के लिए अग्राह्य है। अतः देने वाली से कह दे कि इस प्रकार का आहार-पानी मुझे नहीं कल्पता है। टीका-ऊपर जो आहार-पानी लेने का निषेध किया गया है उसका यह कारण है कि, इस प्रकार करने से बालक के दुग्ध-पान की अन्तराय लगती है तथा भूमि आदि अलग अरक्षित स्थान पर रखने से मार्जार आदि के आक्रमण से पीड़ा पहुँचने की संभावना है। यहाँ एक बात यह है कि, अपवाद-मार्गावलम्बी स्थविर-कल्पी मुनि, यदि बालक दुग्ध-पान न करता हो, भूमि पर रखने से किसी प्रकार कष्ट हो जाने की संभावना भी न हो और ना ही वह रखने से रूदन करता हो, तब उस बालक वाली स्त्री से आहार-पानी ग्रहण कर सकता है; परन्तु जो उत्सर्ग-मागावलम्बी जिन-कल्पी मुनि हैं, वे ऐसा नहीं करते। वे तो बालक दुग्ध पीता हो चाहे न पीता हो; कष्ट की संभावना हो अथवा न संभावना हो; रोता हो अथवा न रोत हो; किसी भी स्थिति में बच्चे वाली स्त्री से आहार-पानी ग्रहण नहीं करते। विशेष बात यहाँ यह है-अपवाद-मार्गावलम्बी मुनि को अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का पूर्ण विचार करके उचित मार्ग का आश्रयण करना चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार ग्राह्य-अग्रह्य की शंका वाले पदार्थों के विषय में कहते हैं: जं भवे भत्तपाणं तु, कप्पाकप्पम्मि संकि। .. दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥४४॥ यद्भवेद् भक्तपानन्तु , कल्पाकल्पे शङ्कितम्। ददतीं प्रत्याचक्षीत , न मे कल्पते ताशम्॥४४॥ पदार्थान्वयः- जं-जो भत्तपाणं-आहार-पानी कप्पाकप्पम्मि-कल्पनीय और अकल्पनीय की संकिअं-शङ्का से शङ्कित भवे-हो तु-तो दितिअं-देने वाली से पडिआइक्खेकह दे कि मे-मुझे तारिसं-इस प्रकार का शङ्कित आहार-पानी न कप्पइ-नहीं कल्पता है। मूलार्थ-यह आहार-पानी मेरे लिए कल्पनीय है या अकल्पनीय है, इस तरह की शङ्का हो जाने पर साधु देने वाली स्त्री से कह दे कि मुझे ऐसा आहार-पानी कल्पता नहीं है। टीका-आहार-पानी ग्रहण के उद्गम आदि दोष पहले कहे जा चुके हैं। जिस समय उन दोनों का निश्चय साधु को हो जाता है, उस समय तो साधु आहार-पानी लेते ही नहीं हैं; क्योंकि वह उनके लिए अकल्पनीय है, किन्तु जिस समय उन दोषों में किसी प्रकार का सन्देह भी साधु के हृदय में उत्पन्न हो जाए तो ऐसी स्थिति में भी साधु को वह आहार-पानी ग्रहण नहीं करना चाहिए। कारण यह कि शङ्कायुक्त आहार-पानी लेने से आत्मा में एक प्रकार का अयुक्त साहस उत्पन्न हो जाता है। इस लिए शङ्कायुक्त आहार-पानी साधु को कदापि नहीं लेना चाहिए। पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [130