________________ टीका- इस सूत्र में साधु को आहार-पानी देने के निमित्त उठने-बैठने की क्रिया करने वाली काल-मासिनी (पूरे महीने वाली) गर्भवती स्त्री से आहार-पानी लेने का साधु के / लिए निषेध किया है. क्योंकि इस प्रकार की कठोर क्रियाओं के करने से गर्भस्थ जीव को पीडा पहँचने की संभावना है और पीडा पहँचने से प्रथम अहिंसा-महाव्रत दूषित हो जाता है। यहाँ पर ध्यान रखना चाहिए कि जो स्थविर-कल्पी मुनि होते हैं, वे तो उक्त दोष का विचार काल-मास पर रखते हैं, किन्तु जो जिन-कल्पी मुनि होते हैं, वे ऐसा काल-मास का विचार नहीं रखते। वे तो गर्भ-धारण के समय से ही- प्रथम मास से ही-उक्त दोष के निवारणार्थ गर्भवती स्त्री से आहार-पानी ग्रहण करना छोड़ देते हैं। स्थविर-कल्पी मुनि की अपेक्षा जिन-कल्पी मुनि का क्रिया-काण्ड अतीव उग्र होता है। यहाँ यह सूत्र-सार रूप ही साम्प्रदायिक मान्यता मानी जाती है कि- स्थविर-कल्पी मुनि, यदि गर्भवती स्त्री बैठी हो वा खड़ी हो तो उससे उसी वर्तमान अवस्था में आहार-पानी ग्रहण कर सकते हैं। सूत्रकार ने जो इस जन साधारण की दृष्टि में मामूली-नगण्य लगने वाली बात को इतना महत्त्व दिया है, इसका सारांश यह है:-जो सांसारिक उपाधियों को छोड़कर विरक्त मुनि हो गए हैं और जिन्होंने पूर्ण अहिंसा की विशाल प्रतिज्ञा ली है, उन्हें बड़ी सावधानी से साधारण से भी साधारण बातों का ध्यान रखते हुए अहिंसा-व्रत की प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए। व्रती और फिर वह स्वीकृत व्रत के पालन में असावधानी रक्खे, यह बात आत्म-पतन की सूचक है। . उत्थानिका- अब सूत्रकार, स्तन-पान कराती हुई दातार स्त्री के विषय में कहते हैं:. थणगं पिज्जमाणी, दारगं वा कुमारिअं। तं निक्खिवित्तु रोअंतं, आहरे पाणभोयणं॥४२॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥४३॥ युग्मम् स्तनकं . .. पाययन्ती, दारकं वा कुमारिकाम्। तौ निक्षिप्य रुदन्तौ, आहरेत् पानभोजनम्॥४२॥ तद्भवेद् भक्तपानन्तु, संयतानामकल्पिकम् / ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥४३॥ . पदार्थान्वयः-दारगं-बालक को वा-अथवा कुमारिअं-बालिका को थणगं-स्तन पिज्जमाणी-पिलाती हुई स्त्री, यदितं- उन रोअंतं-रुदन करते हुए बालक-बालिका को निक्खिवित्तुनीचे भूमि आदि पर रखकर पाणभोयणं-आहार पानी आहरे-दे तु-तो तं-वह भत्तपाणंआहार-पानी संजयाणं-साधूओं को अकप्पिअं-अकल्पनीय भवे-होता है, अतः दितियं-देने वाली से पडिआइक्खे-कह दे कि मे-मुझे तारिसं-इस प्रकार का आहार-पानी न कप्पइ-नहीं कल्पता है। 129 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्