________________ मूलार्थ-संसृष्ट हाथ, कड़छी तथा भाजन से दिया हुआ अन्न-पानी साधु ग्रहण करे, यदि वहाँ पर वह अन्न-पानी निर्दोष हो तो। टीका-इस गाथा में अन्न-पानी के ग्रहण करने की विधि का विधान किया गया है। जैसे कि- जब साधु आहार के लिए जाए तब दाता के हाथ अन्नादि से संसृष्ट हो रहे हैं तथा कड़छी वा अन्य कोई भाजन किसी निर्दोष पदार्थ से लिप्त हो रहा है, तब साधु यदि इस बात का निश्चय कर ले कि-'यह अन्न-पानी तथा भाजनादि सब निर्दोष हैं, पश्चात्-कर्म या पूर्व-कर्म के भी दोष की सम्भावना नहीं की जा सकती, अत: यह अन्न-पानी ग्राह्य है,' तब उस निर्दोष अन्नपानी को ले ले। कारण कि जब साधु के नवकोटी प्रत्याख्यान है तब उसको प्रत्येक पदार्थ की ओर अत्यन्त विवेक रखने की आवश्यकता है। तभी वह दोषों से बच सकता है। यदि उसको विवेक न रहेगा तो वह दोषों से भी नहीं बच सकेगा। यहाँ यदि यह शङ्का की जाए कि जब उसको धर्म-ध्यानादि द्वारा ही समय व्यतीत करना है तब उसको विशेष एषणा की क्या आवश्यकता है ? तो इसका समाधान है कि-धर्मध्यान की शुद्धि के लिए ही आहार की एषणा की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि आहार की विशुद्धि के द्वारा ही धर्म-ध्यान की अत्यन्त विशुद्धि की जा सकती है, अतएव निर्दोष वृत्ति का पालन करने के लिए आहार-एषणा अवश्यमेव करनी चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार इस विषय में कहते हैं कि, यदि कोई पदार्थ दो व्यक्तियों का सम्मिलित रूप में हो तो उसको किस विधि से ग्रहण करना चाहिए: दुण्हं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए। दिज्जमाणं न इच्छिज्जा, छंदं से पडिलेहए॥३७॥ द्वयोस्तु भुञ्जानयोः, एकस्तत्र निमन्त्रयेत्। दीयमानं नेच्छेत् , छन्दं तस्य प्रतिलेखयेत्॥३७॥ पदार्थान्वयः- दुण्हं-दो व्यक्ति भुंजमाणाणं-भोगते हुए हों तत्थ-उनमें से एगोएक व्यक्ति निमंतए-निमन्त्रण करे तु-तब दिज्जमाणं-देते हुए उस पदार्थ को न इच्छिज्जा-न चाहे, किन्तु से-उस न देने वाले व्यक्ति का छंद-अभिप्राय के प्रति पडिलेहए-अवलोकन करे अर्थात् उसके अभिप्राय को देखे। __ मूलार्थ-यदि एक पदार्थ को दो व्यक्ति भोगने वाले हों, तब उनमें से यदि एक व्यक्ति निमन्त्रणा करे, तब साधु न देने वाले व्यक्ति का अभिप्राय अवश्य देखे। टीका- इस गाथा में साधारण पदार्थों के ग्रहण करने की विधि का विधान किया गया है। जैसे कि-जो पदार्थ दो जनों का साधारण हो, उन दोनों में से एक व्यक्ति भक्तिपर्वक // पदार्थ का निमन्त्रणा करे, तब साधु जो व्यक्ति दूसरा हो उसकी आशा को देखेः क्योंकि कहीं ऐसा न हो जाए कि यदि साधु दूसरे की बिना आशा कोई वस्तु ले ले, तब उन दोनों का परस्पर विवाद उपस्थित हो जाए तथा उनका साधारण भाव फिर न रह सके; वा उनका परस्पर वैमनस्य-भाव उत्पन्न हो जाए जिससे फिर वे परस्पर निन्दादि करने लग जाएँ। अतएव साधु को साधारण पदार्थ लेते समय अवश्य विचार करना चाहिए। किसी पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [126