________________ किया गया है। जो फलादि का ग्रहण है उसका यह कारण है कि-फलादि के सूक्ष्म खंड हस्तादि को लगे हुए हों तब भी उस गृहस्थ के हाथ से आहार लेना अकल्पनीय बतलाया गया है तथा जो व्यञ्जनादि से हाथ संसृष्ट वा असंसृष्ट कथन किया गया है उसका कारण यह है किऐसा न हो कि फिर गृहस्थ को आहारादि देने के पश्चात् हस्तादि धोने पड़े। उत्थानिका-पूर्व में संसृष्ट और असंसृष्ट जो दो भेद वर्णन किए हैं, शास्त्रकार अब स्वयं उनका फल वर्णन करते हैं: असंसटेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा। दिजमाणं न इच्छिज्जा, पच्छाकम्मं जहिं भवे॥३५॥ असंसृष्टेन हस्तेन, दा भाजनेन वा। दीयमानं नेच्छेत् , पश्चात्कर्म यत्र भवेत्॥३५॥ पदार्थान्वयः-असंसटेण-असंसृष्ट हत्थेण-हाथ से वा-अथवा दव्वीए-कड़छी से भायणेण-भाजन से दिजमाणं-देते हुए अन्न-पानी के प्रति न इच्छिजा-न चाहे जहिं-जहाँ पर पच्छाकम्मं-पश्चात्-कर्म भवे-हो। ... मूलार्थ- असंसृष्ट हाथ से वा कड़छी तथा भाजन से देते हुए अन्न-पानी को साधु न चाहे, जहाँ पर पश्चात्-कर्म लगे। टीका- इस गाथा में पश्चात्-कर्म का दिग्दर्शन कराया गया है। जैसे कि–अन्नादि से हाथ लिप्त हों तथा कड़छी वा भाजनादि लिप्त हों, यदि साधु को अन्न-पानी देकर फिर उसको भाजनादि धोने पड़े तो साधु उन भाजनादि से आहार ग्रहण न करे, क्योंकि जब वह साधु के निमित्त रखकर सचित्त जल से भाजनादि धो रहा है, तब साध को पश्चात-कर्म नामक दोष लगता है। इसलिये इस प्रकार के आहार का साधु परित्याग कर दे। यदि साधु इस प्रकार के दोष लगने के निश्चय हो जाने पर भी आहार ले ही लेता है, तब उसकी आत्मा उन जीवों की रक्षा के स्थान पर प्रत्युत उनके वध-क्रियाओं के अनुमोदन करने वाली बन जाती है। अतएव इस प्रकार का आहार मुनि को न लेना चाहिए। उत्थानिका- अब प्रश्न उपस्थित हुआ कि, किस प्रकार का आहार लेना चाहिए ? इस विषय में सूत्रकार कहते हैं: संसटेण य हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा। दिज्जमाण पडिच्छिज्जा, जंतत्थेसणियं भवे॥३६॥ संसृष्टेन च हस्तेन, दा भाजनेन वा। दीयमानं प्रतीच्छेत् , यत्तत्रैषणीयं भवेत्॥३६॥ ___पदार्थान्वयः- संसटेण-संसृष्ट हत्थेण-हाथ से य-तथा दव्वीए-कड़छी से वाअथवा भायणेण-भाजन से दिज्जमाणं-दिए हुए अन्न-पानी का पडिच्छिज्जा-ग्रहण करे जं-जो तत्थ-वहाँ पर एसणियं-एषणीय-निर्दोष भवे-हो तो।। 125 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्