________________ गैरिक-वर्णिक-सेटिक-, सौराष्ट्रिक-पिष्ट-कुक्कुसकृतेन च। उत्कृष्टमसंसृष्टः , संसृष्टश्चैव बोद्धव्यः॥३४॥ पदार्थान्वयः-एवं-उसी प्रकार उदउल्ले-गीले हाथों से ससिणिद्धे-स्निग्ध हाथों से ससरक्खे-सचित्त रज से भरे हुए हाथों से मट्टिआ ऊसे-सचित्त मिट्टी वा क्षार से भरे हुए हाथों से हरिआले-हरिताल से भरे हुए हाथों से हिंगुलए-हिंगुल से तथा मणोसिलामन:शिला मिट्टी से अंजणे-अञ्जन से लोणे-लवण से गेरुअ-गेरु वन्निअ-पीली मिट्टी सेढिअ-सफेद मिट्टी सोरट्ठिअ-फिटकिरी पिट्ठ-चून कुक्कुस-भुसी कए-उक्त पदार्थों से हस्तादि भरे हुए य-तथा उक्विटुं-फलों के टुकड़े तथा असंसटे-व्यञ्जनादि से अलिप्त हस्तादि वा संसटेसंसृष्ट-व्यञ्जनादि से हस्तलिस च-पुनः एवं-इस प्रकार बोधव्वे-जानना चाहिए। मूलार्थ- उसी प्रकार पानी से गीले हाथों से, स्निग्ध हाथों से, सचित्त रज से भरे हुए हाथों से, मिट्टी और क्षार एलम भरे हुए हाथों से, हरिताल वा हिंगुल भरे हुए हाथों से. मनःशिला. अञ्जन वा लवण से भरे हाथों से-गेरु, पीली मिट्टी, सफेदं मिट्टी, फिटकिरी, चावलों का मोद, अनछाना चन आदि से तथा उत्कष्ट फल वा व्यञ्जनादि से संसृष्ट हाथों से जानना चाहिए। टीका- इस गाथा में इस विषय का वर्णन किया गया है कि सचित्त पानी से, गीले हाथों से, स्निग्ध हाथों से तथा सचित्त रज से वा कर्दम से हाथ भरे हुए हों, तब उन हाथों से तथा पांशुक्षार, हरिताल, हिंगुल (सिंगरफ), मनःशिला, मिट्टी, अंजन (सुरमा) तथा लवण से भरे हुए हाथों के द्वारा दाता आहार-पानी देने लगे तो साधु कह दे कि-'मुझे यह आहार-पानी नहीं कल्पता है'। इस स्थान पर जो गीले हाथ का कथन किया है उसका कारण है कि-हाथों से पानी के बिन्दु गिरते हों तो उसे 'उदकार्द्र' कहते हैं, यदि केवल हाथ गीले ही हों तब उसका नाम 'स्निग्ध' हाथ है। उक्त सचित्त पदार्थों के संस्पर्श से आहार-पानी ग्रहण करने से उक्त जीवों की विराधना की अनुमोदना लगती है। उक्त गाथा में सचित्त पानी और मिट्टी के कुछ भेदों के नाम दिए हैं। इसी प्रकार के यावन्मात्र सचित्त पदार्थ हैं। यदि उन जीवों की विराधना की सम्भावना हो तो भी मुनि को आहार पानी न लेना चाहिए। ' दूसरे सूत्र में फिर उक्त विषय का ही वर्णन किया गया है। जैसे कि-गेरु-इसी प्रकार सब जाति की मिट्टी के विषय में सूत्रकार ने वर्णन किया है। यथा-श्वेतिका-शुक्लमृत्तिका, सौराष्ट्रिका-तुवरका, पिष्ट, आम तंडुल का क्षोद, कुक्कुस-प्रतीत अर्थात् अनछाना चून-इनसे हाथ भरे हुए हों तथा उत्कृष्ट शब्द से पुष्प-फलादि इनके सूक्ष्म खंडों से हाथ भरे हुए हों तथा उक्त पदार्थों से अलिप्त हों। इस गाथा के कथन करने का सारांश यह है कि जिससे पश्चात्-कर्म लगे उस प्रकार के आहार को भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से हिंसादि अनेक दोषों के लगने की सम्भावना की जा सकेगी। गाथा में गेरुकादि मिट्टियों का वर्णन किया गया है। उसका कारण यह है-जो सचित्त मृत्तिकादि है वह साधु के लिए सर्वथा त्याज्य है। तत्काल के चून का जो निषेध किया गया है उसका भी यही कारण है कि तत्काल के चून में एकेन्द्रिया-त्माओं के प्रदेश रहने की सम्भावना की जा सकती है जिसे उसे सचित्त वा मिश्रित कहा जाता है। जो अनछाना चून है उसमें धान्यादि के रहने की शंका है, इसलिए उसे वर्जित पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [124