________________ उत्थानिका- यदि कोई गृहस्वामिनी पहले ही सचित्त जल से हाथ आदि धोकर आहार-पानी देने लगे तो ऐसी हालत में साधु को क्या करना चाहिए ? शास्त्रकार अब यह बताते हैं: पुरेकम्मेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥३२॥ पुरःकर्मणा हस्तेन, दा भाजनेन वा। ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥३२॥ पदार्थान्वयः-पुरेकम्मेण-साधु को आहार-पानी देने से पहले ही सचित्त जल से धोए हुए हत्थेण-हाथ से दव्वीए-कड़छी से वा-अथवा भायणेण-भाजन से दितिअं-देने वाली को पडिआइक्खे-निषेधपूर्वक कहे कि मे-मुझे तारिसं-इस प्रकार से न-नहीं कप्पइ-कल्पता हैग्रहण नहीं करना है। - मूलार्थ-साधु को आहार-पानी देने से पहले ही सचित्त-अप्रासुक-जल से धोए हुए हाथ, करछुली या किसी अन्य पात्र से आहार-पानी देने वाली स्त्री को साधु यह कह दे कि मुझे इस प्रकार का आहार-पानी ग्रहण नहीं करना है। टीका-गाथा में 'पुरेकम्मेण'-'पुर:कर्मणा' पद जैनागम का एक पारिभाषिक शब्द है। उसका अर्थ-'साधु को आहार-पानी देने से पहले यदि सचित्त जल से हाथ आदि धो लिए हों', यह है। यदि यह क्रिया श्राविका ने घर पर साधु के पहुँचने के पहले ही कर रक्खी हो और साधु को किसी निमित्त से उसका पता लग गया हो, तब भी उस साधु को उसका परित्याग कर देना चाहिए। नहीं तो अनुमोदना, असंयम की कारिता और दुष्प्रवृत्ति की वृद्धि का दोष साधु को लगेगा, जैसा कि पहले कहा जा चुका है। उत्थानिका- अब शास्त्रकार इस बात को कहते हैं कि साधु को दिए जाने वाले आहार-पानी का यदि किसी सचित्त पदार्थ से स्पर्श भी हो जाए, तो भी साधु को उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए:एवं उदउल्ले ससिणिद्धे, ससरक्खे मट्टिआ ऊसे। हरिआले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे॥३३॥ गेरुअ-वनिय-सेडिअ-, सोरट्ठिअ-पिट्ठ-कुक्कुसकए य। उक्किट्ठमसंसटे , संसढे चेव बोधव्वे॥३४॥[युग्मम् ] एवमुदकाः सस्निग्धः, सरजस्कः मृत्तिका ऊषः। हरितालो हिङ्गुलकः, मनःशिला अञ्जनं लवणम्॥३३॥ 123 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्