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________________ संहृत्य निक्षिप्य, सचित्तं घट्टयित्वा च। तथैव श्रमणार्थाय, उदकं संप्रणुद्य॥३०॥ अवगाह्य चालयित्वा, आहरेत् पानभोजनम्। ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥३१॥युग्मम ___ पदार्थान्वयः-तहेव-इसी तरह समणट्ठाए-साधु के लिए सचित्तं-सचित्त को साहट्टमिलाकर निक्खिवित्ताणं-रखकर-सचित्त के ऊपर अचित्त को रखकर घट्टियाणि-रगड़कर उदगं संपणुल्लिया-पानी को हिलाकर य-तथा-ओगाहइत्ता-अवगाहन कर चलइत्ता-चलाकर पाणभोयणं-पानी और भोजन को आहरे-दे तो दितिअंपडिआइक्खे-देने वाली से कहे कि मे तारिसंन कप्पइ-मुझे इस प्रकार का आहार-पानी कल्पता नहीं है। मूलार्थ- इसी तरह कोई दाता-स्त्री, साधु के लिए सचित्त और अचित्त को मिलाकर, अचित्त के ऊपर सचित्त को रखकर, अचित्त से सचित्त को स्पर्शित करके अथवा रगड़कर, पानी को हिला-जुलाकर अथवा स्वयं सचित्त जल से स्नान कर या सचित्त जल को चला करके आहार-पानी दे तो साधु उससे कह दे कि मुझे यह ग्राह्य नहीं टीका-गाथा के 'साहट्ट'-'संहृत्य' पद का अर्थ सचित्त और अचित्त पदार्थों का मिलान होता है। इसके चार भङ्ग होते हैं। यथा-१. सचित्त में सचित्त मिला देना, 2. सचित्त में अचित्त मिला देना. 3. अचित्त में सचित्त मिला देना. ४.अचित्त में अचित्त मिला देना। गाथा में 'समणट्ठाए'-'श्रमणार्थम्' जो पद दिया गया है, उसका अर्थ 'साधु के लिए या साधु के निमित्त से' यह किया गया है। जैसे कि कल्पना करो कि किसी गृहस्थ के घर साधु आहार लेने के लिए गया तो वहाँ आँगन में वर्षा आदि का जल भरा हुआ हो, साधु अपने यहाँ आता देख गृहस्थ ने उस पानी को मोरी आदि मार्ग से निकाल दिया, तो साधु को यह देखकर वहाँ से वापिस आ जाना चाहिए और उस घर का आहार-पानी उस समय नहीं लेना चाहिए; क्योंकि उस जल के निकालने में जो जीव-विराधना हुई, वह उस साधु के निमित्त से ही हुई। यहाँ यह शङ्का की जा सकती है कि उस जल को बाहर निकालने में जो हिंसा हुई, वह तो हो गई। आहार ले लेने से वह दुगुनी नहीं हो सकती। तो फिर आहार-पानी लेने में क्या ष है ? इसका समाधान यह है कि यदि उस समय साध आहार-पानी ग्रहण कर ले तो दाता नि दोनों के हृदय में उस जीव-विराधना का पश्चात्ताप न हो सकेगा। आहार-पानी न लेने से दोनों के अन्तकरण: में पश्चात्ताप पैदा हआ। यह पश्चात्ताप कर्म का नाशक है तथा उस समय आहार ले लेने से आगे को प्रवृत्ति भी बिगड़ जाएगी। इसलिए साधु को ऐसा आहार कभी नहीं ग्रहण करना चाहिए। उसके लिए ऐसा आहार शास्त्र में अकल्पनीय कहा गया है। यहाँ पर 'आहरे'-'आहरेत्' क्रिया का अर्थ 'लाए' किया गया है। आङ्-पूर्वक 'ह' धातु का अर्थ 'लाना' भी होता है यह पहले लिखा जा चुका है। शब्द के अनेक अर्थों में से प्रकरणानुसार अर्थ ग्रहण करना चाहिए। पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [122
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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