________________ संमद्दमाणी पाणाणि, बीआणि हरिआणि य। असंजमकरि नच्चा, तारिसं परिवज्जए॥२९॥ संमर्दयन्ती प्राणिनः, बीजानि हरितानि च। असंयमकरी ज्ञात्वा, तादृशीं परिवर्जयेत्॥२९॥ पदार्थान्वयः-पाणाणि-प्राणियों को बीआणि-बीजों को य-और हरिआणि-हरितकाय को संमद्दमाणी-संमर्दन करती हुई-कुचलती हुई असंजमकरिं-असंयम करने वाली नच्चा-जानकर तारिसं-इस प्रकार की (सदोष अन्न-पानी देने वाली) स्त्री को परिवज्जए-छोड़ देना चाहिए। मूलार्थ-द्वीन्द्रियादि प्राणियों को, शाली आदि बीजों को और दूर्वा आदि हरितकाय को कुचलती हुई-रौंदती हुई तथा साधु के निमित्त अन्य किसी प्रकार का असंयम करती हुई स्त्री यदि साधु को आहार-पानी देने के लिए आए तो साधु उसे वर्ज दे-उसके हाथ से आहार-पानी न ले। टीका-गाथा में 'पाणाणि बीआणि हरिआणि य संमद्दमाणि' और 'असंजमकरिं'ये दो विशेषण-पद हैं। इन दोनों को विधेय विशेषण मानकर तो ऊपर अर्थ किया ही गया है, लेकिन 'पाणाणि बीयाणि हरियाणि य संमद्दमाणि' को उद्देश्य विशेषण और 'असंजमकरि'को विधेय विशेषण मानकर भी एक अर्थ और किया जा सकता है। वह अर्थ होगा-प्राणी, बीजों और हरितकाय को कुचलती हुई आने वाली स्त्री को असंयमकरी जानकर साधु उसको वर्ज दे'। इस अर्थ में 'साधु के निमित्त किए गए अन्य असंयमो' के अर्थ को उपलक्षण से ग्रहण करना पड़ेगा। इसी लिए इस अर्थ को गौण समझकर अन्वयार्थ में पहले ही अर्थ को स्थान दिया है। 'असंजमकरं'-'असंयमकरीम्' पद का अर्थ 'साधु के निमित्त असंयम करने वाली' तो ऊपर किया ही गया है। उसके अतिरिक्त अपने घर में किसी भी प्रकार का असंयम रूप कार्य उस समय करने वाली' भी अर्थ यहाँ ग्रहण करना चाहिए। साधु यदि असंयमकरी स्त्री के हाथ से आहार-पानी ग्रहण कर ले तो उसे इसमें असंयम का दोष तो लगेगा ही, इसके अतिरिक्त असंयम की अनुमोदना का भी दोष लगे बिना न रहेगा। साधु-कृत, कारित और अनुमोदना, तीनों प्रकार से असंयम के त्यागी होते हैं। - उत्थानिका-आहार-पानी देते समय दाता की और जो गलतियाँ हैं, जिन्हें देखकर साधु आहार-पानी उसके हाथ से नहीं लेते, शास्त्रकार अब उन्हें दो गाथाओं में इस प्रकार कहते हैं:साहट्ट निक्खिवित्ताणं, सचित्तं घट्टियाणि य। तहेव समणट्ठाए, उदगं संपणुल्लिया॥३०॥ ओगाहइत्ता चलइत्ता, आहरे पाणभोयणं। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥३१॥युग्मम् 1 इत्यत्र क्वचित् 'आहारे' इति पाठान्तरम्। 121 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्