________________ धातु का अर्थ हरण करना होता है। लेकिन 'आङ् उपसर्ग लग जाने से उसका अर्थ बदल जाता है-उपसर्गबलाद्धातुर्बलादन्यत्र नीयते, प्रहाराहार-संहारविहारपरिहारवत्।' इसी लिए आङ्पूर्वक 'ह' धातु के चार अर्थ होते हैं-१. दृष्टान्त देना, 2. स्वीकार करना, 3. व्यवस्था करना, 4. ले जाना। प्रकरणवश यहाँ पर स्वीकार करना' अर्थ स्वीकार कर लेने से 'स्वयमेव लाया हुआ' अर्थ अपने आप व्यक्त हो जाता है। क्योंकि मँगाए हुए में स्वीकार करने का व्यवहार नहीं होता। स्वीकार शब्द वहीं व्यवहृत होता है जहाँ पर कि कोई व्यक्ति पदार्थ को स्वयं दे रहा हो। इस गाथा के तीसरे चरण के 'गिहिज्ज' पद की जगह पर कहीं-कहीं 'इच्छिज्जा' भी पाठ मिलता है। लेकिन उससे यह पाठ सुन्दरतर है। 'कल्पनीय' और 'अकल्पनीय' शब्द की व्याख्या शास्त्रकार स्वयं आगे गाथाओं द्वारा करने वाले हैं, अत: यहाँ पर उक्त शब्दों की व्याख्या नहीं की गई है। उत्थानिका- आहार-पानी देने वाला व्यक्ति यदि सावधानी से मुनि को दान न दे रहा हो तब उस मुनि का क्या कर्त्तव्य है ? शास्त्रकार अब इस सम्बन्ध में कहते हैं: आहरंती सिया तत्थ, परिसाडिज्ज भोयणं। दिति पडिआइक्खे, न में कप्पइ तारिसं॥२८॥ आहरन्ती स्यात् तत्र, परिशाटयेद् भोजनम्। ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्॥२८॥ पदार्थान्वयः- आहरंती-देने वाली सिया-कदाचित् तत्थ-वहाँ पर भोयणं-अन्नपानीरूप भोजन को परिसाडिज-इतस्ततः विक्षेपण करे तो दितिअं-देने वाली को पडिआइक्खेकहे कि मे-मुझे तारिसं-इस प्रकार का आहार-पानी न कप्पड्-नहीं कल्पता है-नहीं लेना है। मूलार्थ-देने वाली स्त्री कदाचित् इतस्ततः गिराती हुई साधु को भोजन दे तो उसे साधु यह कह दे कि-'यह भोजन मुझे नहीं कल्पता है'-नहीं लेना है। टीका- इस गाथा में आहार लेने की विधि का विधान किया गया है। जैसे कि जब साधु गृहस्थ के घर में आहार के लिए जाए तब भोजन तथा पानी जो स्त्री देने लगे वह स्त्री यदि उस भोजन को देते समय इधर-उधर गिराती हो तो साधु उससे कह दे कि हे भगिनि ! वा हे श्राविके ! इस प्रकार का गिरता हुआ आहार-पानी मुझे नहीं लेना है। कारण कि अयना हो रही है तथा मधुर पदार्थों के गिरने से अनेक जन्तु इस स्थान पर एकत्रित हो जाएंगे। जिससे फिर उन जीवों की विराधना होने की संभावना की जा सकेगी। इसलिए इस प्रकार का आहार मेरे लिए अयोग्य है। इस गाथा में 'आहरंती'-'आहरन्ती' जो स्त्री-प्रत्ययान्त पद दिया गया है, उसका कारण यह है कि-'स्त्येव प्रायो भिक्षां ददातीति स्त्रीग्रहणम्' अर्थात् आहार प्रायः स्त्री-जाति के हाथों से ही दिया जाता है। उत्थानिका- इसके अलावा साधु को आहार-पानी देते समय दाता से यदि और भी किसी प्रकार की भूल हो जाए तो उसे (गलती को) देखकर जैन साधु उसके आहार-पानी को ग्रहण नहीं करते, शास्त्रकार अब इस संबंध में कहते हैं: पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [120