________________ पदार्थान्वयः-दगमट्टिअआयाणे-पानी और मृत्तिका के लाने के मार्ग को बीआणिबीजादि के लाने के मार्ग को अ-और हरिआणि-हरितकाय के लाने के मार्ग को परिवजंतो-वर्जता हुआ सव्विंदिअसमाहिए-सर्वेन्द्रियों को समाधि में रखने वाला अर्थात् पाँचों इन्द्रियों को जिसने वश में कर लिया है, ऐसा वह मुनि चिट्ठिज्जा-खड़ा हो। मूलार्थ-जिस मार्ग से लोग पानी, मृत्तिका, बीज तथा हरितकाय लाते हों, सर्वेन्द्रिय की समाधि वाला उनको वर्जता हुआ उचित प्रदेश में जाकर खड़े। बड़ा टीका- इस गाथा में मार्ग शुद्धि का वर्णन किया गया है। जैसे कि जिस मार्ग से लोग पानी, मिट्टी, बीज तथा हरितकाय लाते हों, यदि वह मार्ग संकचित हो और उस समय उस स्थान पर जाने से उसके शरीर से सचित्त पदार्थों का संघटन हो सकता है, तो वह सर्व इन्द्रियों को वश में रखने वाला मुनि किसी एकान्त में, उचित प्रदेश में जाकर खड़ा हो जाए और जब वह मार्ग उक्त पदार्थों से विशुद्ध हो जाए तब मुनि उक्त मार्ग से भिक्षाचरी के लिए कहीं दूसरी जगह जा सकता है। जिस समय वह मार्ग उक्त पदार्थों से संकीर्ण हो रहा हो, उस समय मुनि को जीव-रक्षा के लिए किसी एकान्त स्थान में ही खड़े रहना उचित है। जाने के समय से पहले ही साधु को मार्ग का विचार कर लेना चाहिए और जब साधु वहाँ खड़ा हो, तब वह वहाँ अनाकुल चित्त से खड़ा रहे। उत्थानिका-इस प्रकार खड़े होने के बाद साधु जो आहार ले, वह किस प्रकार का होना चाहिए ? शास्त्रकार अब इस बात का विवरण करते हैं: तत्थ से चिट्ठमाणस्स, आहरे पाणभोयणं। अकप्पियंन गिण्हिज्जा, पडिगाहिज्ज कप्पिअं॥२७॥ तत्र तस्य तिष्ठतः, आहरेत् पानभोजनम्। अकल्पिकं न गृह्णीयात्, प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकम्॥२७॥ पदार्थान्वयः-तत्थ-उस स्थान पर चिट्ठमाणस्स-खड़ा हुआ से-वह साधु पाणभोयणंपानी और भोजन आहरे-ले, लेकिन अकप्पियं-अकल्पनीय न गिण्हिज्जा-ग्रहण न करे, बल्कि कप्पिअं-कल्पनीय पडिगाहिज-ग्रहण करे। मूलार्थ-उस स्थान पर खड़ा हुआ साधु पानी और भोजन ले। यदि वह अकल्पनीय हो तो ग्रहण न करे और यदि कल्पनीय हो तो ग्रहण कर ले। टीका-इस गाथा में आहार लेने की विधि का विधान किया गया है। जैसे कि-जब साधु मार्ग में खड़ा हुआ हो तब गृहस्थ की स्त्री यदि अपने आप ही पानी और भोजन लेकर आ रही हो और वह मुनि के प्रति यह विज्ञप्ति करे कि 'हे भगवन् ! आप यह अन्न और पानी को लेने की कृपा कीजिए।' इस प्रकार की विज्ञप्ति हो जाने पर यदि वह पानी और भोजन निर्दोष और कल्पनीय हो तब उसे मुनि ग्रहण करे, यदि वह आहार-पानी सदोष और अकल्पनीय हो तो उसे ग्रहण न करे। 'आहरे'-'आहरेत् ' में आङ्-उपसर्गपूर्वक 'ह' हरणे धातु है। केवल 'ह' १क्वचिदस्य स्थाने 'आहारे' इत्यपि पाठः। 119 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्