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________________ नाना प्रकार के कुलों में नाना प्रकार की मर्यादा होती है। साथ ही इस बात का भी ध्यान रहे कि सूत्रकर्ता ने जो 'अइभूमि'-'अतिभूमि' पद दिया है, उसका तात्पर्य है कि साधु सामान्य भूमि पर स्वतन्त्रतापूर्वक जा सकता है। उत्थानिका- मर्यादित भूमि के पास पहुँच जाने के बाद मुनि का क्या कर्त्तव्य है ? अब वह शास्त्रकार कहते हैं: तत्थेव पडिलहिज्जा, भूमिभागं विअक्खणो। सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं परिवज्जए॥२५॥ तत्रैव प्रतिलिखेत् , भूमिभागं विचक्षणः। स्नानस्य च वर्चसः, संलोकं परिवर्जयेत्॥२५॥ पदार्थान्वयः- विअक्खणो-विचक्षण साधु तत्थेव भूमिभागं-उस मर्यादित भूमिभाग का पडिलेहिजा-प्रतिलेखन करे सिणाणस्स-स्नान-घर का य-तथा वच्चस्स-शौचालय का संलोगं-देखना परिवज्जए-छोड़ दे। मूलार्थ- भिक्षाचरी में गया हुआ विचक्षण साधु , उस मर्यादित भूमि-भाग का प्रतिलेखन करे और वहाँ खड़ा हुआ स्नान-घर तथा पाखाने की ओर न देखे। टीका-इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि जब साधु, गृहस्थ के घर में आहार के लिए जाए, तब वह वहाँ जाकर क्या करे और किन-किन स्थानों को न देखे। जैसे कि-जब मर्यादित भूमि पर विचक्षण साधु जाकर खड़ा हो जाए तब उस भूमि-भाग का भलीभाँति प्रतिलेखन करे। उस स्थान पर खड़े होकर साधु को चाहिए कि वह गृहस्थ के स्नानगृह को तथा उसके शौचालय (पाखाना) का कदापि अवलोकन न करे, कारण कि उक्त दोनों स्थानों में स्त्री वा पुरुष नग्न-अवस्था में दृष्टिगोचर हो सकते हैं। जिससे कि शासन की लघुता व काम-राग की प्राप्ति होने की सम्भावना हो सकती है तथा गृहस्थ को साधु के ऊपर शङ्कादि दोषों की प्राप्ति हो सकती है। अतएव उक्त दोनों स्थानों को कदापि नहीं देखना चाहिए। कहींकहीं पर 'भूमिभागं विअक्खणो' की जगह पर 'भूमि-भागविअक्खणो'-'भूमिभागविचक्षणः' ऐसा समस्त पद का भी पाठ मिलता है। तब उसका अर्थ होगा-'मर्यादित भूमि को जानने में विचक्षण अर्थात् कुशल साधु वहाँ खड़ा होकर प्रतिलेखन करे। उत्थानिका-गृहस्थ के घर पहुँचकर साधु को कैसे-कैसे स्थानों को छोड़कर आहार के लिए खड़ा होना चाहिए ? अब शास्त्रकार उसके संबंधो में कहते हैं: दगमट्टिअआयाणे , बीआणिहरिआणि अ। परिवजंतो चिट्ठिज्जा, सव्विंदिअसमाहिए // 26 // उदकमृत्तिकादानम् , बीजानि हरितानि च। . परिवर्जयंस्तिष्ठेत् , सर्वेन्द्रियसमाहितः // 26 // पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [118
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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