________________ मूलार्थ-साधु संसक्त होकर किसी ओर न देखे, अति दूर से किसी चीज़ को नदेखे और नेत्रों को फाड़-फाड़कर भी न देखे।यदि किसी घर से आहार न मिले तो दीन वचन या क्रोधयुक्त वचन न बोले और उस घर से निकल आए। 'टीका- इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि जब साधु गृहस्थ के घर में आहार के लिए जाए , तब उसे वहाँ जाकर किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए। जब आहार के वास्ते गृहस्थ के घर में जाए तब वह वहाँ आसक्त होकर किसी स्त्री को न देखे, कारण कि इस प्रकार देखने से गृहस्थ को शङ्का, काम-राग की प्राप्ति, लोकोपघात आदि दोषों की प्राप्ति हो सकती है और न ही गृहस्थ के घर के पदार्थों को जो दर पडे हए हों. उनको देखे। क्योंकि ऐसा करने से गृहस्थ को चोर होने की शङ्का उत्पन्न हो सकती है और यदि उस घर से आहार नहीं मिला हो तो उसे चाहिए कि वह वहाँ दीन वचन तथा क्रोधयुक्त वचन न बोलते हुए उस घर से बाहर आ जाए और उस घर की निन्दादि के वचन कदापि न बोले। कारण कि साधु का तो शास्त्र की आज्ञा के अनुसार-अपनी वृत्ति के अनुसार-याचना करना कर्त्तव्य है। गृहस्थ की इच्छा है उनको भिक्षा दे अथवा न दे। इसलिए ऐसे अवसर पर साधु का यह कर्त्तव्य नहीं है कि वह उस घर की किसी भी प्रकार की निन्दा करे। किन्तु उसका कर्त्तव्य यह है कि वह आसक्त-भाव को छोड़कर सूत्रोक्त विधि के अनुसार अपनी वृत्ति-भिक्षाचरी-में प्रवेश करे। उत्थानिका- अब फिर उसी विषय में कहते हैं:अइभूमिं न गच्छेज्जा, गोयरग्गगओ मुणी। कुलस्स भूमिं जाणित्ता, मिअंभूमिं परक्कमे // 24 // अतिभूमिं न गच्छेत् , गोचराग्रगतो मुनिः। कुलस्य भूमिं ज्ञात्वा, मितां भूमिं पराक्रामेत्॥२४॥ पदार्थान्वयः-गोयरग्गगओ-गोचराग्र में गया हुआ मुणी-साधु अइभूमि-अतिभूमि में न गच्छेज्जा-न जाए कुलस्स-कुल की भूमि-भूमि को जाणित्ता-जानकर मिश्र भूमि-मर्यादित भूमि पर ही परक्कमे-पराक्रम करे अर्थात् जाए। ... मूलार्थ- गोचरान में गया हुआ मुनि, अतिभूमि अर्थात् गृहस्थ की मर्यादित की हुई भूमि को अतिक्रम करके आगे न जाए , किन्तु कुल की भूमि को जानकर घर की मर्यादित की हुई भूमि तक जाए। टीका- इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि साधु, कुल की भूमि को जानकर भिक्षाचरी में प्रवेश करे। जैसे कि-जब आहार के लिए जाए, तब जिस कुल में प्रवेश करे, उस कुल की मर्यादित भूमि को देखकर ही आगे जाए। यदि वह मर्यादित भूमि को लाँघकर जाएगा तब जिनशासन की वा उन मुनियों की लघुता होने की सम्भावना है। अतएव मुनि को योग्य है कि वह कुल की भूमि को जानकर फिर उस मर्यादित भूमि पर जाने का पराक्रम करे जिससे किसी भी प्रकार की लघुता उत्पन्न होने का प्रसंग न आए तथा इस गाथा से यह भी सिद्ध होता है कि भिक्षु को प्रत्येक कुल की मर्यादा का बोध होना चाहिए। क्योंकि 117 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्