________________ करने से साधु से संयम-विराधना होने की सम्भावना है। उक्त गाथा में कोट्ठए'-'कोष्ठके' शब्द उपलक्षण है। इससे जहाँ कहीं भी फूल और बीज बिखरे हुए हों और जहाँ कहीं भी लीपा गया हो या गीलापन हो, वे सभी स्थान साधु के लिए वर्जनीय हैं', यह अर्थ लेना चाहिए। यह उत्सर्ग-मार्ग प्रतिपादन किया गया है, किन्तु अपवाद-मार्ग से यत्नपूर्वक किसी विशेष कारण के वश साधु उक्त स्थानों पर जा भी सकता है। उत्थानिका-द्वार पर यदि निम्न वस्तुएं दिखाई दें, तो भी साधु को वहाँ नहीं जाना चाहिए: एलगं दारगं साणं, वच्छगंवा वि कोट्ठए। उल्लंघिया न पविसे, विउहित्ताण व संजए॥२२॥ एडकं दारकं श्वानम् , वत्सकं वाऽपि कोष्ठके। उल्लङ्घ्य न प्रविशत्, व्यूह्य वा संयतः॥२२॥ पदार्थान्वयः-कोट्ठए-कोठे के दरवाजे पर एलगं-बकरा दारगं-बालक साणं-कुत्ता वा-अथवा वच्छगं वि-वत्सक भी हो तो उन्हें उल्लंघिया-उल्लंघन करके व-अथवा विउहित्ताणहटा करके संजए-साधु न पविसे-प्रवेश न करे। मूलार्थ कोठे के दरवाजे पर यदि कोई बकरा, बालक, कुत्ता या बछड़ा भी मिल जाए तो संयमी (साधु) को चाहिए कि वह उन्हें फलांग कर अथवा हटाकर घर में प्रवेश न करे। टीका- गाथा के 'वि'-'अपि' शब्द से यहाँ पर प्रकरणानुसार अन्य पशु भी ग्रहण कर लेने चाहिए। साधु यदि इन्हें लाँघकर अथवा पैर आदि किसी भी अवयव से उन्हें वहाँ से हटाकर अन्दर जाए , तो सम्भव है उसमें किसी भी प्रकार की तकलीफ या तो उन्हें हो जाए अथवा स्वयं को ही हो जाए। इसलिए आत्म विराधना तथा पर-विराधना से बचे रहने के लिये साधु को उस घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए। उत्थानिका- शास्त्रकार इसी विषय में और भी विशेष प्रतिपादन करते हैं:असंसत्तं पलोइजा, नाइदूरावलोअए / उप्फुल्लंन विणिज्झाए, निअट्टिज अयंपिरो॥२३॥ असंसक्तं प्रलोकयेत्, नातिदूरादवलोकयेत् / उत्फुल्लं न विनिर्ध्यायेत्, निवर्त्तताऽ जल्पाकः // 23 // पदार्थान्वयः-असंसत्तं-असंसक्त होकर पलोइजा-प्रलोकन करे नाइदूरावलोअएअति दूर से अवलोकन न करे उप्फुलं-विकसित आँखों से न विणिज्झाए-न देखे अयंपिरो-दीन वचन न बोलता हुआ निअट्टिज-निकले। पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [116