________________ नीचद्वारं तमस्विनम् , कोष्ठकं परिवर्जयेत्। अचक्षुर्विषयो यत्र, प्राणिनो दुष्प्रतिलेख्याः // 20 // . पदार्थान्वयः-णीअदुवार-नीचे द्वार वाले को तमसं-घोर अन्धकार-युक्त कुट्ठगं-कोठे को जत्थ-जिस स्थान पर अचक्खुविसओ-चक्षु स्व-विषय का ग्रहण न कर सके उसको पाणाद्वीन्द्रियादि प्राणी दुप्पडिलेहगा-भली भांति से देखे न जा सकें उन्हें परिवज्जए-छोड़ दे। मूलार्थ-जिस घर का दरवाजा बहुत नीचा हो अथवा जिस कोठे में घोर अन्धकार हो, जहाँ पर नेत्रेन्द्रिय कुछ काम न देती हो और जहाँ पर त्रस जीव दिखलाई न पड़ते हों, साधु ऐसे घरों को छोड़ दें अर्थात् आहार-पानी लेने के लिए वहाँ वे न जाएँ। ___टीका-साधु को उपरोक्त प्रकार के मकान इसलिए छोड़ देने चाहिए क्योंकि वहाँ जाने से ईर्या की शुद्धि नहीं हो सकती। इसलिए संयम-विराधना होगी तथा स्वशरीर-विराधना का होना भी संभव है। 'दुप्पडिलेहगा' की जगह पर कहीं-कहीं 'दुप्पडिलेहा' भी पाठ देखने में आता है। पर संस्कृत छाया और अर्थ दोनों पाठों का एक ही होता है। यहाँ यह शङ्का की जा सकती है कि गृहस्थ लोग इस प्रकार के मकान क्यों बनवाते हैं तथा ऐसे अन्धकारादियुक्त मकान गृहस्थों को उनके स्वास्थ्यादि को भी नुकसान पहुँचाने वाले हैं ? इसका समाधान यह है कि गृहस्थ अपनी इच्छानुसार गृह बनाते हैं, उन पर किसी तरह का प्रतिबन्ध तो है नहीं; हाँ, साधु का अपना कर्त्तव्य है कि वह उन मकानों को वर्ज दे। प्रत्येक शास्त्र का विषय अलग-अलग होता है। जिस शास्त्र का जो विषय होता है वह उसे प्रतिपादन करता है। यह शास्त्र-यह अध्ययन-साधुओं की 'पिण्डैषणा' के विषय का प्रतिपादक है। इसलिए इसमें यही विषय है। गृहस्थों के मकान बनाने का प्रतिपादन करने वाला यह शास्त्र नहीं है। उस विषय के शास्त्रों से उस विषय में जानना चाहिए। उत्थानिका- मकान की बनावट के अतिरिक्त और किन-किन बातों को देखकर साधु को मकान छोड़ देना चाहिए ? सो कहते हैं: जत्थ पुण्फाइंबीयाई, विप्पइन्नाई कोट्ठए। अहुणोवलित्तं उल्लं, दट्टणं परिवज्जए॥२१॥ यत्र पुष्पाणि बीजानि, विप्रकीर्णानि कोष्ठके। अधुनोपलिप्तमार्द्रम् , दृष्ट्वा परिवर्जयेत्॥२१॥ - पदार्थान्वयः-जत्थ-जिस कोट्ठए-कोठे में पुप्फाइं-पुष्प बीयाइं-बीज विप्पइन्नाइं. बिखरे हुए हों, उसको अहुणोवलित्तं-तत्काल लीपे हुए उल्लं-गीले को दट्टणं-देखकर परिवजएवर्ज दे। मूलार्थ-जिस स्थान पर फूल और बीज बिखरे हुए हों तथा जो स्थान अभी ही लीपा-पोता गया है, अतएव गीला हो, उस स्थान को देखकर साधु दूर से ही छोड़ दे। टीका- उक्त स्थानों पर जाने से साधु के लिए इसलिए निषेध है कि वहाँ पर गमन 115 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्