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________________ गोयरग्गपविट्ठो अ, वच्चमुत्तं न धारए। . ओगासं फासुअंनच्चा, अणुन्नविअवोसिरे॥१९॥ गोचराग्रप्रविष्टश्च , वर्धोमूत्रं न धारयेत्। अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वा, अनुज्ञाप्य व्युत्सृजेत्॥१९॥ . . पदार्थान्वयः- गोयरग्गपविट्ठो-गोचराग्र में गया हुआ अ-फिर वच्च-पुरीष-बड़ी नीत मुत्तं-मूत्र की बाधा-लघु नीत न धारए-धारण करके न जाए फासुअं-प्रासुक-निरवद्य ओंगासंजगह नच्चा-जानकर अणुनविअ-गृहस्थ की आज्ञा लेकर वोसिरे-व्युत्सर्जन करे। ___ मूलार्थ- प्रथम तो मल-मूत्र की बाधा होने पर साधु गोचरी के लिए ही न जाए और यदि वहाँ जाने पर बाधा हो जाए , तब प्रासुक मल-मूत्र का स्थान जानकर और गृहस्थ की आज्ञा लेकर ही मल-मूत्र का परित्याग करे। टीका- गोचरी का समय मध्याह्न के कुछ ही पूर्व है। मूत्र-पुरीष की बाधा की निवृत्ति का समय प्रातः काल का है। इस तरह से यद्यपि गोचरी के समय से पूर्व मुनि मूत्र-पुरीष से निवृत्त हो ही लेते हैं, तो भी गोचरी को जाते समय साधुओं को विचार लेना चाहिए कि शरीर * में किसी प्रकार की मूत्र-पुरीषादि की बाधा तो नहीं है और यदि मालूम हो तो स्व-स्थान पर ही उससे निवृत्त हो लेना चाहिए। इसके बाद भी-गृहस्थ के घर पहुँच जाने पर भी-यदि कदाचित्. बाधा प्रतीत हो तो साधु को उचित है कि वे गृहस्थ की आज्ञा लेकर और प्रासुक स्थान देखकर वहाँ मूत्र-पुरीष का उत्सर्जन करे। ऐसा न करने से अनेक रोगों के उत्पन्न होने की संभावना है। जैसे कि- मूत्रावरोध से नेत्ररोग और पुरीषावरोध से अनेक रोग तथा जीवोपघात आदि होते हैं। इसी लिए सूत्रकर्ता ने इस प्रकार की आज्ञा प्रदान की है। इसके बाद यहाँ यह शङ्का की जा सकती है कि- जब मुनि उक्त शुद्ध स्थान पर मलमूत्रादि का परित्याग कर दें, तब वहाँ वे अपनी शुद्धि किस प्रकार से करें ? इसका समाधान यह है कि- यदि उनके पास अन्य साध हों तो वे साध कहीं से प्रासक जल लाकर उन्हें दे दें। यदि अन्य साधु उनके समीप न हों तो वे प्रथम प्रासुक मृत्तिका से शुद्धि कर फिर स्व उपाश्रय में आकर जलादि से शुद्धि कर सकते हैं। इस प्रकार जैन-ग्रन्थों में प्रतिपादन किया गया है / सो उक्त विधि से बाधा से रहित होकर फिर प्रस्तुत विषय में प्रवृत्त हो जाएं। उत्थानिका- शास्त्रकार अब घरों की बनावट के आधार पर किस-किस प्रकार के घरों को साधु छोड़ दे, यह कहते हैं: णीअदुवारं तमसं, कुट्ठगं परिवज्जए। अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा॥२०॥ १'अतः संघाटकाय स्वकभाजनानि समर्प्य प्रतिश्रयात् पानीयं गृहीत्वा संघभूमौ विधिना व्युत्सृजेत्। विस्तरतो यथा औधनियुक्तौ'। पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [114
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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