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________________ कि वेश्या आदि के घर'। इन कुलों में साधु इसलिए न जाए कि वहाँ पर जाने से संक्लेश आदि के उत्पन्न होने का प्रसङ्ग आ जाएगा। साधु उन्हीं कुलों में आहार-पानी के लिए गमन करे, जिनमें जाने से उन पर भक्ति-भाव उत्पन्न हो जाए। वृद्ध-व्याख्या से उक्त पद का अर्थ यह भी सुना जाता है कि-जिन कुलों की प्रतीति नहीं है उन कुलों में मुनि प्रवेश न करे, कारण कि वहाँ पर जाने से साधु की भी अप्रतीति लोगों में हो जाएगी। उत्थानिका- मार्ग और कुलों के विषय में कथन करने के बाद शास्त्रकार अब यह कहते हैं कि घर पर पहुँच जाने के बाद साधु को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए: साणीपावारपिहियं , अप्पणा नावपंगुरे। कवाडं नो पणुल्लिज्जा, उग्गहंसि अजाइया॥१८॥ शाणीप्रावारपिहितम् ,आत्मना नापवृणुयात्। कपाटं न प्रणोदयेत् , अवग्रहमयाचित्वा // 18 // पदार्थान्वयः- साणीपावारपिहियं-सन की बनी हुई चिक से अथवा वस्त्रादि से ढंके हुए द्वार को उग्गहंसि-आज्ञा अजाइया-बिना माँगे अप्पणा-स्वयमेव नावपंगुरे-न खोले कवाडं-गृह के कपाटों को नो पणुल्लिज्जा-न खोले। ___मूलार्थ- सन की बनी हुई चिक से अथवा कपड़े से ढंके हुए द्वार को गृहपति की आज्ञा के बिना साधु अपने आप न खोले। टीका- गृहपति की आज्ञा के बिना साधु किसी द्वार आदि आवरण को इसलिए न खोले कि न जाने अन्दर गृहस्थी की कौन-सी क्रिया हो रही हो ? गृहस्थ उसे बतलाना न चाहता हो या वह क्रिया इनके बतलाने योग्य न हो। ऐसे में, यदि मुनि अचानक उसके यहाँ पहुँच जाएगा तो घर वालों को क्रोधादि उत्पन्न होने की संभावना है। साणी' की संस्कृत छाया जैसे 'शाणी' की गई है, वैसी ही 'शुनी' भी होती है, जिसका अर्थ होता है 'कुतिया'। लेकिन आगे 'पाचार' जो शब्द पड़ा हुआ है उसके संयोग से यहाँ पर 'शाणी' ही.छाया करना ठीक है, जिसका अर्थ 'सन से बना हुआ वस्त्र अर्थात् चिक' है। 'उग्गह'-' अवग्रह' के अर्थ भी 'अवग्रह' नामक मतिज्ञान-विशेष, उपकार, आज्ञा, नियम, परिग्रह, निवास स्थान, अन्तर, निश्चय. उपकरण विशेष. योनिद्वार. ग्राह्य और अपनी वस्त. इतने होते हैं। प्रकरणवश यहाँ पर 'आज्ञा' अर्थ ही उचित है। इस गाथा में शास्त्रकर्ता ने उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों मार्गों का दिग्दर्शन करा दिया है। समय के जानने वाले विवेकशील साधु जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को देखें वैसा ही व्यवहार करें और जो क्रिया करें, उसमें उत्सर्ग-मार्ग वा अपवाद-मार्ग का आश्रय वे अवश्य ले लें। उत्थानिका- गोचरी के लिए साधु जब जाए, तब पहले ही वह मल-मूत्र की बाधा से निवृत्त हो ले। यदि कदाचित् गृहस्थ के घर जाकर बाधा उपस्थित हो जाए तो वहाँ पर साधु क्या करे ? सो कहते हैं: 113 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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