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________________ __ जे पव्वयं सिरसा भित्तुमिच्छे, सत्तंवसीहंपडिबोहइज्जा। जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं॥ यहाँ गुरु उपमेय है तथा पर्वत और सिंह उपमान हैं और इन दोनों में समानता का स्पष्ट कथन है, अत: उपमालंकार है। अनुप्रास अलंकार जहाँ एक व्यंजन की कई बार आवृत्ति हो और उससे लालित्य और संगीतात्मकता उत्पन्न हो जाए वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। चौथे अध्ययन की 23 वीं गाथा में कहा गया है कि जिस समय केवल ज्ञानी जिन, लोकालोक को जान लेते हैं, उस समय वे मन, वचन और कायरुपयोगों का निरोध कर पर्वत की तरह स्थिर परिणाम वाले बन जाते हैं। गाथा प्रस्तुत है. जया लोगमलोगंच, जिणोजाणइ केवली। तया जोगे निरूभित्ता, सेलेसिं पडिवजइ॥ प्रस्तुत गाथा में ल' और 'ज' व्यंजनों की बार-बार आवृत्ति होने से यहां अनुप्रास अलंकार है। इस में भाषा-लालित्य और व्यंजनों से संगीतात्मकता भी उत्पन्न होती है। रस रस को काव्य की आत्मा मामा गया है। श्रोता तथा पाठक के हृदय में आनन्द का उन्मेष पैदा करना ही काव्य का अंतिम लक्ष्य है। प्राचीन आचार्यों ने काव्य रस को ही आनन्द रस माना है।आचार्य भरत मुनि ने सर्वप्रथम रस का विवेचन करते हुए अपने नाट्यशास्त्र' में उसे सहृदय की अनुभूति और आत्म रुप स्वीकार किया तो दूसरी ओर साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने रस को 'ब्रह्मास्वाद सहोदरः' कह कर उसे अलौकिक माना है। नौ रसों में से यद्यपि शृंगार को ही रसराज माना है परन्तु शांतादि रसों का अपना स्थान है।लौकिक दृष्टि से शृंगार रस की अभिव्यक्ति अधिक है और वह काव्य में आकर्षण भी पैदा करता है परन्तु आध्यात्मिक काव्य मेंशांत रस को अधिक प्रश्रय दिया जाता है। जहाँ पाश्चात्य समीक्षकों ने कला को कला के लिए स्वीकार किया है वहाँ जैनाचार्यों ने इसे जीवन के लिए' - भी स्वीकार किया है। काव्य केवल शिवम् और सुन्दरम्सेही युक्त नहीं है अपितु उसमें रसोत्पादन और आनन्द उत्पन्न करने की भी क्षमता है-"ltisnotenough forpoems to be fine, They must charm and draw the mind of the listener at will" ... 'दशवैकालिक सूत्र' में शांत रस का निर्वाह हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ मुनि जीवन के त्याग, अध्यात्म-ज्ञान, वैराग्य तथा संसार की नश्वरता दर्शाने के लिए रचा गया है। इस लिए इस में शांत रस का निर्वाह स्वाभाविक ही था। विभिन्न आचार्यों ने तत्त्वज्ञान जन्य निर्वेद अथवा शम को शांत रस का स्थायी भाव माना है। तत्त्वज्ञान जन्य निर्वेद से अभिप्रायलौकिक निस्पृहता से है और शम का अभिप्राय इच्छाओं का शमन है। स्थायी भाव निर्वेद के आलम्बन हैं- मुनि तथा धार्मिक स्थल और शांत-एकांत वातावरण। मुनियों के उपदेश, संसार की नश्वरता, जरा, मरण, रोग, शोक आदि का वर्णन इसके उद्दीपन विभाव हैं। xiii
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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