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________________ अलंकार-योजना अलंकार, काव्य का सौन्दर्य तत्त्व है। भारतीय काव्य शास्त्र में विभिन्न आचार्यों ने अलंकार को काव्य की आत्मा स्वीकार किया है और उनका मत है कि अलंकार के बिना काव्य में रमणीयता आ ही नहीं सकती। आचार्य केशव की यह काव्य पंक्ति-'भूषण बिनुन राजहिं कविता, वनिता मित्त'(अलंकारों के बिना न कविता सुन्दर लगती है और न ही स्त्री) इसी तथ्य की व्यंजक है। अलंकार का शाब्दिक अर्थ-शोभा-प्रसाधन या शोभा-प्रकरण अर्थात् आभूषण है। अलंकरोतीति अलंकारः'।जिससे अलंकृत किया जाए वही अलंकार है। भामह, उद्भट, दण्डी तथा रूद्रट आदि अलंकारवादी आचार्यों ने अलंकारों को काव्य का आवश्यकतथा अंतरंग तत्त्व माना है।आचार्यभामह ने अपने ग्रन्थ काव्यालंकार' में स्पष्ट किया है कि काव्य में अलंकार वर्ण-विन्यास या पदलालित्य के लिए आवश्यक है। इस में सन्देह नहीं कि रस ही काव्य की आत्मा है परन्तु काव्य के प्रसाधन तो अलंकार ही हैं जिससे वह शोभा पाता है। ___'दशवैकालिक सूत्र में भावों का उत्कर्ष दिखाने और काव्य में सौंदर्य लाने के लिए विभिन्न अलंकारों का प्रयोग हुआ है।ये अलंकार काव्य में सहज तथा स्वाभाविक रूप में प्रयुक्त हुए हैं, आरोपित नहीं किए गए।यहाँ यह स्मर्तव्य है कि आगमकार मुनि थे, निर्ग्रन्थ थे और उन्हें काव्य की बाह्य साजसज्जा अरूचिकर थी और उनके ग्रन्थ का विषय आध्यात्मिक होने से भी उन्हें काव्य में आध्यात्मिक रस ही अभीष्ट था परन्तु फिर भी ग्रन्थ में अलंकारों का सहज प्रयोग तो हुआ ही है। प्रस्तुत आगम में दृष्टांत, उपमा तथा अनुप्रास आदि अलंकारों का प्रयोग दर्शनीय है- . दृष्टांत अलंकार जहाँ उपमेय धर्म की उपमान द्वारा पुष्टि स्वरुप दृष्टांत से कथ्य को सिद्ध किया जाए, वहाँ दृष्टांत अलंकार होता है।आगम के प्रथम अध्ययन की चौथी गाथा में भ्रमर का दृष्टांत देकर स्पष्ट किया गया है कि मुनि गृहस्थ द्वारा दिए गए आहारादि को ऐसे ग्रहण करे जैसे भ्रमर पुष्पों से रस ग्रहण करता है। दृष्टांत अलंकार का उदाहरण प्रस्तुत है वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मइ। अहागडेसु रीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा॥ यहाँ मुनि उपमेय की भ्रमर उपमान के दृष्टांत द्वारा कथ्य की पुष्टि की गई है, अत: यहाँ दृष्टांत अलंकार है। उपमाअलंकार जहाँ उपमेय की उपमान से समानता का स्पष्ट कथन हो वहाँ उपमा अलंकार होता है। नवम अध्ययन की आठवीं गाथा में उपमा अलंकार की छटा दर्शनीय है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि जो मदांध शिष्य गुरुजनों की आशातना करता है, वह कठिन पर्वत को मस्तक की टक्कर से फोड़ना चाहता है और सोते हुए सिंह को जगाता है। वह शक्ति की तीक्ष्ण धार पर अपने हाथ-पैर का प्रहार करता है। एक गाथा द्रष्टव्य है xii
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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