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________________ प्रस्तुत गाथा के श्रवण मात्र से ही उसकी अर्थमयता का सहज बोध हो जाता है। अत: यहाँ प्रसाद गुण विद्यमान है। * आगमकार ने माधुर्य गुण' सम्पन्न भाषा का यत्र-तत्र प्रयोग किया है। इससे भाषा में लालित्य तथा सरसता स्वतःही प्रवाहित हो उठी है। एकगाथा दर्शनीय है - न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इअवुत्तं महेसिणा॥ (अध्ययन-6, गाथा-21) अर्थात् - समस्त जीवों की रक्षा करने वाले श्रमण भगवान् महावीर ने वस्त्र पात्रादि उपकरणों को परिग्रह नहीं कहा है अपितु मूर्छा भाव (आइसक्ति) को ही परिग्रह माना है। भगवान् के इन्हीं वचनों की अनुज्ञा करते हुए महर्षिगणधरों ने भी मूर्छाभाव को परिग्रह माना है। इस गाथा में भगवान् की वाणी में सरसता है और सीधे-सादे शब्दों में परिग्रह की व्याख्या की है अत: यहाँ माधुर्य गुण है। सुन्दरसूक्तियां सुन्दर सूक्तियों में उपदेश देना भारतीय साहित्य की प्राचीन शैली है। इन सूक्तियों में नीति, धर्म, व्यवहार, सदाचार आदि मानवीय गुणों की महत्ता प्रतिपादित करने का प्रयास किया गया है। रामायण, महाभारत, पुराण आदि प्राचीन संस्कृत साहित्य में उपदेशात्मक तथा नीति परक सूक्तियां यत्रतत्र उपलब्ध होती हैं। अपभ्रंश तथा प्राकृत साहित्य में भी मानव-मन को प्रभावित करने वाली सुन्दर सूक्तियों का प्रयोग हुआ है। - 'दशवैकालिक सूत्र में विभिन्न स्थलों पर सुन्दर सूक्तियों का प्रयोग मिलता है। इन में संसार की निस्सारता, जीवन की क्षणभंगुरता और लोकव्यवहार केज्ञान केसाथ-साथ जीवनोपयोगी उपदेश भी दिए गए हैं। इन सूक्तियों में परामर्श है आदेश नहीं। इन सूक्तियों के प्रयोग से भाषा में प्रवाह तथा रमणीयता के दर्शन होते हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण सूक्तियाँ इस प्रकार हैं . * . क्रोध से प्रीति का नाश होता है। - * मान से विनय का नाश होता है। * . माया (छल-कपट) से मित्रता का नाश होता है। . * लोभ से सभी सद्गुणों का नाश होता है। _ * जैसे बांस का फल स्वयं ही बांसों के नाश का कारण बन जाता है, उसी प्रकार अहंकार, क्रोध तथा छल से सीखा हुआ ज्ञान सीखने वाले व्यक्ति के नाश का स्वयं ही कारण बन जाता धधकती आग को पैरों तले मसलना हानिकारक है। * जहरीले सर्प को क्रुद्ध करना भयावह होता है। * एक बार गलती करके उसकी पुनरावृत्ति नहीं करनी चाहिए। ये सूक्तियाँ कोरे उपदेश नहीं हैं अपितु व्यावहारिक जीवन में ग्राह्य भी हैं। xi
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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