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________________ प्रकारसम्प्रेषित करती है- 'styleisaquality of language whichcommunicates precisely emotions or thoughts of the author.' भाषा में लाक्षणिकता अर्थवत्ता को द्विगुणित कर देती है। लाक्षणिक भाषा शब्द के वाच्यार्थ में छिपे अन्य गूढ़ अर्थको व्यंजित करती है। कहीं-कहीं अभिधा की अपेक्षा लक्षणावृत्ति शैली में जादू का कार्य करती है। भाषा में प्रसाद तथा माधुर्य गुण, शैली को रमणीयता प्रदान करते हैं। जिस शब्दावली के सुनते ही उसके अर्थकी प्रतीति हो, वहाँ प्रसाद गुण विद्यमान होता है और जिस शब्दावली में सरसता हों वहाँ माधुर्य गुण होता है। इस में कर्कश शब्दावली को स्थान नहीं दिया जाता। प्रसाद तथा माधुर्य गुण सम्पन्न शैली उत्तम काव्य के लिए आवश्यक है। 'दशवैकालिक सूत्र' की भाषा गद्य-पद्य मिश्रित 'अर्धमागधी' है। जहाँ ग्रन्थकार ने गद्य के माध्यम से अपनी बात को वाच्यार्थ में पाठकों तक पहुँचाया है वहाँ पद्य में कोमल कांत पदावली द्वारा सरल उपदेशों की छटा बिखेर दी है। कहीं-कहीं भाषा तो कांतावत उपदेश' देने की क्षमता रखती है। भाषा की उदात्तता, संक्षिप्त अभिव्यक्ति और शब्द-चयन की कारीगरी ने प्रतिपाद्य-विषय को सुन्दर अभिव्यंजना प्रदान की है। अनेक स्थलों पर भाषा हृदय को छू जाती है। मार्मिक शब्द ग्राह्य हैं। भाषा में लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग ने ग्रन्थ के विषय को प्राणवान बना दिया है। लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग विशेष अवसरों तथा विशेष प्रसंगों को मार्मिकता प्रदान करने के लिए किए गए हैं। कुछ लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग दर्शनीय हैंपुप्फेसु विहंगमा- पुष्पों में भ्रमर-लक्षणा-भिक्षाचरी में मुनि को भ्रमर की भाँति अल्प आहार लेना चाहिए। . धुमकेउं धूमकेतु - लक्षणा-अनिष्ट की ओर संकेत। अंकुसेण नागो- अंकुश में आया हाथी- लक्षणा - मन रुपी हाथी को वश में करना। माया सल्ल माया-शल्य - लक्षणा - कपट रूपी कांटा। अमुच्छिओ मूर्छित न होना - लक्षणा - आसक्ति रहित। पिट्ठी कुव्वई - पीठ देना - लक्षणा - भोगों से मुँह मोड़ना। वंतं इच्छसि आवेउं- वमन को पीने की इच्छा - लक्षणा - छोड़े हुए भोगों को पुनः भोगने की इच्छा करना। विवेच्य आगम में स्थान-स्थान पर माधुर्य तथा प्रसाद गुणों से मण्डित शैली के दर्शन होते हैं। इस से स्पष्ट है कि आगमकार ने कथ्य को रमणीयता प्रदान की है। अर्थ-बोध की प्रतीति कराने वाली 'प्रसाद-गुण'युक्त एकगाथा प्रस्तुत है जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठी कुव्वइ। साहीणे चयई भोए, से हुचाइत्ति वुच्चई॥ (अध्ययन-2, गाथा-3) अर्थात् - जो मनुष्य प्रिय और कमनीय भोगों के मिलने पर भी उन्हें पीठ दे देता है, वास्तव में वही मनुष्य त्यागी है।
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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