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________________ का मनसा, वाचा, कर्मणा पालन करना चाहिए।अहिंसा तथा दयाभाव तो इनमें प्रमुख हैं।सभी जीव जीना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता, प्राण सभी को प्रिय हैं, इसलिए निर्ग्रन्थ हिंसा से दूर रहे। साधु अपने लिए अथवा दूसरों के लिए, क्रोध से अथवा भय से झूठ न बोले।इसी तरह अन्य महाव्रत भी उसके लिए आवश्यक हैं। लोकेषणा तथा अर्थ-लिप्सा संयमी जीवन के लिए घातक हैं जो धीरे-धीरे संयम रूपी भवन को धराशायी कर देते हैं। मुनिकेतप, त्याग तथा वैराग्य आदि मुक्ति रूपी सौंध के सोपान हैं। यह मुनि की अन्तश्चेतना पर निर्भर करता है कि मुक्ति रूपी सौंध तक पहुँचने के लिए आगम-सम्मत नियमों का वह किस सीमा तक पालन करता है। आगम का स्पष्ट आदेश है कि मानसिक बल, शारीरिक बल, श्रद्धा, आरोग्य तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि का उचित विचार करते हुए साधुधर्म-कार्य में प्रवृत्त रहे।क्षमा, दयादि सद्गुणों वाला, परीषहों (कष्टों) को समभाव से सहन करने वाला, चंचल इन्द्रियों को जीतने वाला, श्रुत विद्या को धारण करने वाला, किसी भी प्रकार की ममता न रखने वाला, परिग्रह के भार से हलका रहने वाला, पूर्ण संयमी साधु कर्म रूपी मेघों के छंट जाने पर उसी प्रकार शोभा पाता है जिस प्रकार सम्पूर्ण बादलों के पटल से पृथक होने पर चन्द्रमा शोभा पाता है। मंगलाचरणः ग्रन्थारम्भ से पूर्व मंगलाचरण की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। प्राचीन साहित्यकार सरस्वती वन्दना से, ईश्वर की स्तुति से, गुरु की विनय से, गणेश की अभ्यर्थना से, प्रकृति में व्याप्त अनन्त रमणीय सत्ता को नमस्कार कर मंगलाचरण की परिपाटी का निर्वहन करते रहे हैं। दशवैकालिक सूत्र'का आरम्भ मंगलाचरण की पारम्परिक शैली में नहीं किया गया अपितु अहिंसा, संयम और तप रूपी धर्म को उत्कृष्ट मानकर उसे नमस्कार किया गया है धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥ - (अध्ययन, 1, गाथा, 1) ग्रन्थकार का धर्म से अभिप्राय जीवन के आध्यात्मिक गुणों से है और ये गुण जिस प्राणी के हृदय में निवास करते हैं उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। इस तरह यह स्पष्ट है कि जिस धर्म को देवता भी नमस्कार करते हैं, आचार्य शय्यंभव भी उसे नमस्कार करते हैं और वही मंगलाचरण का सर्वोत्तम आधार बन सकता है। इस प्रकार ग्रन्थकार ने मंगलाचरण की नई परम्परा का उन्नयन किया है। भाषा-शैली: भाषा, भावों की संवाहिका तथा सम्प्रेषणीयता का उत्कृष्ट माध्यम है। भाषा के माध्यम से ही कथ्य को मर्मस्पर्शी बनाया जा सकता है। भाषा स्पष्ट तथा उदात्त होनी चाहिए। उपयुक्त शब्द-चयन, संक्षिप्त अभिव्यक्ति और स्पष्टता इसके अनिवार्य तत्त्व हैं। जो भाषा भावों को स्पष्ट कर पाने में सक्षम नहीं है वह पाठकों तथा श्रोताओं को आंदोलित नहीं कर सकती। यदि भाषा भावों की संवाहिका है तो शैली विचारों का सुन्दर प्रस्तुतिकरण / भाषा यदि शब्द-विन्यास करती है तो शैली लेखक के निजी अनुभवों और उसके व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करती है। उसमें चारूशब्द-योजना, सुष्ठवाक्य विन्यास आदि गुण होने चाहिएं।शैली को भाषा का विशिष्ट रूप माना जाता है जो लेखक के भावों को अच्छी ix
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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