________________ इस सूत्र की प्रामाणिकता का प्रमुख कारण यह भी है कि इसे श्वेताम्बर, दिगम्बर तथा तेरापन्थं समान रूप से महत्त्व प्रदान करते हैं और अपने श्रमण-श्रमणियों को सर्वप्रथम अध्ययन करवाते हैं। 'दशवैकालिक सूत्र' के आधार को लेकर विद्वानों में दो पक्ष रहे हैं। एक पक्ष पूर्वो को दशवैकालिक का आधार मानता रहा है तो दूसरा पक्ष इसका आधार द्वादशांगी को मानता है। आचार्य सम्राट्पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज ने अपने अनुभव तथा शोध के अनुसार दशवैकालिक का आधार आगमों को ही माना है। उनके अनुसार प्रथम अध्याय की रचना अनुयोगद्वार सूत्र में कही गई साधुकी 12 उपमाओं से भ्रमर की उपमा को लेकर की गई है। द्वितीय अध्याय का आधार उत्तराध्ययन सूत्र के 22 वें अध्ययन को माना गया है। तृतीय अध्याय का आधार निशीथ सूत्र है। चतुर्थ अध्याय आचारांग सूत्र के 24 वें अध्ययन के अनुसार रचा गया है। पंचम अध्याय आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 'पिंडेषणा' नामक प्रथम अध्ययन का अनुवाद है। छठा अध्याय समवायांग सूत्र के 18 वें समवाय पर आधारित है। सातवाँ अध्याय आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के तेरहवें भाषा नामक अध्ययन का ही अनुवाद है। आठवें अध्याय का आधार स्थानांग सूत्र के आठवेंसूत्र से लिया गया है। नौवाँ और दसवाँ अध्याय भिन्नभिन्न सूत्रों पर आधारित है। नामकरण : इस सूत्र का नामकरण दश+वैकालिक (दशवैकालिक) रखा गया है जो किसी चरित्र अथवा नाम विशेष पर आधारित नहीं है। 'वैकालिक का अर्थ है-संध्या समय।सम्भवतः इसकी समाप्ति संध्या के समय हुई होगी और इसके साथ दश जोड़ देने से इस का नाम 'दशवैकालिक' प्रचलित हो गया। 'दशवैकालिक सूत्र' की रचना लगभग 2350 वर्ष पूर्व अर्धमागधी भाषा में हुई। इसके दस अध्याय हैं। मुक्तक शैली में रचित प्रस्तुत ग्रन्थ गद्य-पद्य विधाओं का सुन्दर संयोजन है। राजमती-रथनेमि प्रसंग से इसमें प्रबन्ध-शैली का आभास भी मिलता है। प्रस्तुत ग्रन्थ जैन श्रमणों की आचार संहिता' है। इसके कई पद्य पाली भाषा के 'धम्मपद' में भी मिलते हैं। प्रतिपाद्य-विषय, मंगलाचरण, भाषा-शैली, सुन्दर सूक्तियों, अलंकार योजना तथा रसादि की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त उपादेय बन पड़ा है और यह प्रज्ञा पुरुषों के सुदीर्घ अनुभवों का सुन्दर निदर्शन है। प्रतिपाद्य-विषय : दशवैकालिकसूत्र' का प्रतिपाद्य-विषय मुनि की संयम-यात्रा से सम्बद्ध है। इस यात्रा में उसे अडिग रहने का उपदेश भी दिया गया है और प्रेरणा भी।मुनि को भिक्षावृत्ति में युक्ति और यत्न से काम लेना चाहिए।मुनि को अपने संयम की रक्षा के लिए तप एवं त्याग का आलम्बन लेना चाहिए। आगम में गुरु की महत्ता प्रतिपादित की गई है। शिष्य को अपने गुरु तथा आचार्य की आसातना नहीं करनी चाहिए।आगम में स्पष्ट किया गया है कि जो शिष्य स्तम्भ की भाँति अकड़कर, क्रोध से अथवा छल से गुरु से विद्या ग्रहण करता है, ऐसी विद्या उसी शिष्य के नाश का उसी भाँति कारण बन जाती है जैसे बाँस स्वयंघर्षण केकारण जलकर भस्म हो जाते हैं। मुनि को स्त्री संसर्ग से बचना चाहिए। यह उसकी संयमसाधना के लिए अति आवश्यक है। इस आगम में केवल उपदेश ही नहीं परामर्श भी है, शिक्षा ही नहीं अभ्युदय की भावना भी है, आदर्श ही नहीं यथार्थ भी है, अपवाद मार्गही नहीं उत्सर्ग मार्ग भी है, केवल तपही नहीं ध्यान साधना भी है।आगम में आगे कहा गया है कि मुनि को सुगन्धित पदार्थों का परित्याग कर ज्ञान, दया, सत्य तथा शीलादि आंतरिक गुणों से स्वयं को अलंकृत करना चाहिए। उसे पाँच महाव्रतों viii