________________ से कदाचित् लोगों के मन में यह सन्देह उत्पन्न हो सकता है कि यह भिक्षु उक्त स्थानों को पुनः पुनः क्यों देख रहा है। क्या यह चोर आदि है? या, क्या इसी ने चोरी आदि की है ? इसी लिए शास्त्रकार ने गाथा में 'संकट्ठाणं'-'शङ्का-स्थानम्' पद दिया है अर्थात् ये स्थान शङ्कास्पद हैं। लेकिन उपरोक्त अर्थ तभी घट सकता है, जब कि 'संकट्ठाणं' पद को आलोअं' आदि पदों का विशेषण माना जाए। लेकिन एक प्रकार से 'संकट्ठाणं', 'आलोअं' आदि पदों का विशेषण नहीं भी हो सकता। क्योंकि एक तो वह दूर-चौथे चरण में पड़ा हुआ है। दूसरे बीच में 'चरंतो न विणिज्झाए'-'चरन् न विनिर्ध्यायेत्' अपूर्ण और पूर्ण क्रियापद भी पड़े हुए हैं, जिन से कि 'आलोअं' आदि पूर्व पदों का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है। ऐसी हालत में 'संकट्ठाणं' को पूर्व में कहे हुए 'आलोअं' आदि पदों का विशेषण न मानकर स्वतन्त्र माना जा सकता है और उसका सम्बन्ध केवल 'विवज्जए' क्रिया से किया जा सकता है। तब उसका अर्थ होगा 'शङ्का के स्थानों को छोड़ दे।' यही अर्थ सुगम है, इसलिए यही अर्थ अन्वयार्थ और मूलार्थ में लिखा गया है। यह याद रखना चाहिए कि उक्त स्थानों को साधु के बार-बार अथवा विशेष रूप से देखने का ही निषेध है और इसी लिए शास्त्रकार ने न विणिज्झाए' में विशेष रूप में 'वि' उपसर्ग लगाया है, जिसका भाव है 'विशेषेण न पश्येत्' / आलोअ' शब्द के-१. प्रकाश 2. देखना 3. विशेष रूप से देखना, 4. समान भू भाग, 5. झरोखा, 6. संसार 7. रूपी पदार्थ ये सात अर्थ होते हैं। इनमें से यहाँ पर जो-जो अर्थ घटित हो, उन्हें घटा लेना चाहिए। उत्थानिका- शास्त्रकार इसी प्रकार के और भी कुछ स्थान गिनाते हैं:रणो गिहवईणं च, रहस्सारक्खियाण य। संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवज्जए॥१६॥ राज्ञो गृहपतीनां च, रहस्यमारक्षकाणां च। संक्लेशकरं . स्थानम् , दूरतः / परिवर्जयेत्॥१६॥ ____ पदार्थान्वयः- रणो-राजा के गिहवईणं-गृहपतियों के च-और आरक्खियाणकोतवालादि के रहस्स-गुप्त वार्तादि करने के स्थान को य-तथा संकिलेसकरं ठाणं-क्लेशकारक स्थानों को दूरओ-दूर से परिवञ्जए-छोड़ दे।। __ मूलार्थ- राजा, नगरसेठ, कोतवाल आदि के गुप्त वार्तालापादि करने के स्थानों को और दुःखदायी स्थानों को साधु दूर से ही छोड़ दे। टीका-गाथा में 'रण्णो'-'राजा', 'गिहवईणं'-'गृहपति' और 'आरक्खियाणं''आरक्षकाणाम्' जो पद दिए हैं, उन्हें उपलक्षण समझना चाहिए। और उससे तत्सदृश राज्य के अन्य उच्च कर्मचारी तथा अन्य प्रतिष्ठित नागरिकों को भी ग्रहण करना चाहिए अथवा 'च' से उन सब का समुच्चय कर लेना चाहिए। 'संकिलेसकरं ठाणं'-'संक्लेशकरं स्थानम्' पद से असद् इच्छा की प्रवृत्ति करने के स्थान, मन्त्रभेद करने के स्थान, विचार करने के स्थान, कर्षण-क्रियाएँ करने के स्थान और उपलक्षण से काम-क्रीड़ा के स्थान ग्रहण करने चाहिए। पिण्डैषणा आदि के लिए गमन करता हुआ साधु , उक्त स्थानों को दूर से ही इसलिए 111 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्