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________________ अनुन्नतो नावनतः, अप्रहृष्टः अनाकुलः। इन्द्रियाणि यथाभागम् , दमयित्वा मुनिश्चरेत्॥१३॥ . पदार्थान्वयः-मुणी-मुनि अणुन्नए-न उन्नत होकर नावणए-न अवनत होकर अप्पहिढेन हर्षित होकर अणाउले-न आकुलित होकर इंदियाणि-इन्द्रियों को जहाभागे-अपने अपने हिस्से में-विषय में दमइत्ता-वश में करके चरे-गोचरी आदि में जाए। मूलार्थ-साधु चलते हुए न तो अति ऊँचे को देखे, न अति नीचे को देखे, न हर्षित हो, न व्याकुल हो, किन्तु इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में वश करता हुआ गोचरी आदि में जाए। टीका-गाथा में कहा गया है कि साधु गमन करते समय उन्नतपने से गमन न करे। उन्नतपने से गमन दो तरह का है-एक द्रव्य से, दूसरा भाव से। ईर्या-समिति को छोड़कर आकाशादि को निहारते हुए गमन करना, द्रव्यरूप उन्नतपने से गमन करना है और अपनी श्रेष्ठ जाति आदि का अभिमान-भाव मन में रखते हुए गमन करना, भाव रूप उन्नतपने से गमन करना है। जिस तरह उन्नतपने से गमन करना दो तरह का है, उसी तरह नीचेपने से गमन करना भी दो तरह का है-एक द्रव्य से, दूसरा भाव से। अत्यन्त नीची दृष्टि करके चलना; इतनी नीची दृष्टि करके कि साधु के लिए शास्त्र में साढ़े तीन हाथ प्रमाण आगे देखकर चलने की जो आज्ञा है, उतना भी आगे देखकर न चलना द्रव्य रूप अवनतपने से गमन करना है और आहार-पानी की प्राप्ति न होने पर मन में नीचैर्वृत्ति धारण करते हुए गमन करना, भाव रूप अवनतपने से गमन करना है। पदार्थ के मिल जाने पर हर्षित होना और नहीं मिलने पर आकुलता-क्रोधादि-प्रदर्शित करना भी साधु के लिए अनुचित है। उक्त प्रकार से गमन करने पर साधु के लिए उपहासादि अनेक दोष उत्पन्न हो सकते हैं। जैसे कि- यदि साधु द्रव्यरूप अत्यन्त उन्नतपने से चलेगा तो वह लोक में उपहास के योग्य हो जाएगा; यदि वह भावरूप से अत्यन्त उन्नतपने से चलेगा तो सूत्रोक्त ईर्या-समिति की पालना न कर सकेगा; यदि द्रव्य रूप से अत्यन्त अवनतपने से चलेगा तो वह लोक में वक-वृत्ति से गमन करने वाला कहा जाएगा; यदि भाव रूप से अत्यन्त नीचेपन से चलेगा तो लोक में क्षुद्र सत्त्व वाला कहा जाएगा; यदि हर्षित होकर चलेगा तो लोग कहेंगे कि स्त्रियों के दर्शन से आनन्दित होता हुआ जा रहा है। यदि आकुलित होता हुआ चलेगा तो लोग कहेंगे कि यह साधु दीक्षा के योग्य नहीं है-इत्यादि अनेक दोषों की सम्भावना की जा सकती है। इसलिए साधु को उचित है कि वह विवेक पूर्वक इन बातों का ध्यान रखते हुए गवेषणा आदि के लिए गमन करे। इतना ही नहीं, किन्तु पाँचों इन्द्रियों के विषयों से अपने मन को हटा कर और राग-द्वेष से रहित होकर ही मुनि गोचरी आदि में गमन करे। .. स्पर्शेन्द्रिय का विषय है- स्पर्श करना; जिह्वेन्द्रिय का विषय है-चखना; घाणेन्द्रिय का विषय है- सूंघना; चक्षुरिन्द्रिय का विषय है- देखना और श्रोत्रेन्द्रिय का विषय हैसुनना। इस तरह पाँचों इन्द्रियों के विषय अलग-अलग विभाजित हैं - बँटे हुए हैं। इसी लिए गाथा के 'जहाभागं' शब्द का अर्थ अपने-अपने हिस्से में-विषय में किया गया है। उत्थानिका- शास्त्रकार इसी विषय में कुछ और विशेष प्रतिपादन करते हैं: 109 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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