________________ श्वानं सूतां गाम् , दृप्तं गां हयं गजम्। संडिम्भं कलहं युद्धम् , दूरतः परिवर्जयेत्॥१२॥ पदार्थान्वयः- साणं-कुत्ते को सूइयं गाविं-नव-प्रसूता गौ को दित्तं-दर्पित गोणंबलीवर्द को हयं-अश्व को गयं-हाथी को संडिब्भं-बालकों के क्रीड़ास्थान को कलह-कलह को जुद्धं-युद्ध को दूरओ-दूर से परिवजए-छोड़ दे। मूलार्थ-साधु को मार्ग में यदि कुत्ता, नव-प्रसूता गौ, मदोन्मत्त बैल, अश्व, हस्ती, बालकों के क्रीड़ा का स्थान, कलह का स्थान, युद्ध का स्थान मिल जाए तो उन्हें छोड़कर गमन करे। टीका-यहाँ पर 'साणं'-'श्वानम्' में जो एकवचन है, वह जातिवाचक है। इस से यहाँपर एककत्ता और अनेक कत्ते' का भी अर्थ समझना चाहिए। उसी तरह से सड़ 'सूतां गाम्"व्याही हुई गाय' का अर्थ भी उपलक्षण-सहित करना चाहिए, जिससे ब्याही हुई उँटनी, भैंस, बकरी आदि भी ग्रहण की जा सकती हैं अथवा 'गो' शब्द गाय-वाचक भी है और सामान्य वाचक भी है और सामान्य पशु वाचक भी, इस लिए यहाँ पर उसे सामान्य पशु वाचक भी मानकर अर्थ किया जा सकता है। 'दित्तं'-'दृप्तम्'-'मदोन्मत्त' विशेषण वाचक शब्द सिर्फ 'गोणं'-'गाम्'-'बैल' के साथ ही न लगाना चाहिए, बल्कि शेष दो हयं गयं'-'हयं गजम्''घोड़ा और हाथी' के शब्द के साथ भी लगाना चाहिए। गाथा के तीसरे चरण में 'संडिब्भं'शब्द का तो अर्थ'बालकों के खेलने का स्थान ' होता है। लेकिन कलहं जुद्धं'-'कलहं युद्धम्' का शुद्ध अर्थ सिर्फ 'कलह और युद्ध' ही होता है, 'कलह का स्थान और युद्ध का स्थान नहीं होता। इसलिए यहाँ पर 'गङ्गायां घोषः' की भाँति ध्वनि मानकर 'कलह और युद्ध' का अर्थ 'कलह-स्थान और युद्ध-स्थान' भी करना चाहिए। साधु के लिए गमन करते समय इनका संयोग इसलिए वर्जित है कि ये संयोग आत्म-विराधना और संयम विराधना दोनों के ही कारण हैं। उपरोक्त विवेचन का सम्मिलित अर्थ इस प्रकार करना चाहिए:-'जिस स्थान पर कुत्ता बैठा हुआ हो वा श्वानमण्डली लगी हुई हो; इसी प्रकार नव-प्रसूता गौ, मदोन्मत्त बैल, मदोन्मत्त अश्व, मदोन्मत्त हाथी आदि खड़े हों; बालकों का क्रीड़ा स्थान हो, परस्पर वचन-युद्ध होता हो तथा खड्गादि से युद्ध होता हो तो साधु ऐसे स्थान को दूर से ही छोड़ दे।' कारण कि उक्त स्थानों में गमन करने से आत्म विराधना वा संयम-विराधना दोनों संभव हैं / जैसे किश्वानादि पशु तो आत्म-विराधना करने में अपनी सामर्थ्य रखते ही हैं और जहाँ पर बालकों के खेलने का स्थान है, यदि उस स्थान पर से जाया जाएगा तो वे बालक भी उपहासादि द्वारा वा भंडनादि द्वारा संयम-विराधना करने में विलम्ब नहीं करेंगे। अतएव उक्त दोनों विराधनाओं के भय से साधु उक्त स्थानों में गमन ही न करे। उत्थानिका- शास्त्रकार अभी उसी विषय का वर्णन कर रहे हैं:अणुन्नए नावणए, अप्पहिढे अणाउले। इंदियाणि जहाभागं, दमइत्ता मुणी चरे॥१३॥ पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / . [108