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________________ तस्मादेतं.. विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्द्धनम्। वर्जयेद्वेश्यासामन्तम् , मुनिरकान्तमाश्रितः // 11 // पदार्थान्वयः- तम्हा-इसलिए एगंतमस्सिए-एकान्त में रहने वाला मुणी-मुनि एयं-इस प्रकार दुग्गइवड्वण-दुर्गति को बढ़ाने वाले दोसं-दोष को विआणित्ता-जानकर वेससामंतं-वेश्या के समीप भाग को वज्जए-छोड़ दे। ___ मूलार्थ- इसलिए एकान्त में रहने वाला अर्थात् मोक्ष-मार्ग के आश्रय में रहने वाला मुनि, इस प्रकार दुर्गति के बढ़ाने वाले दोषों को जानकर वेश्या के समीप के मार्ग को भी छोड़ दे। टीका- इस गाथा में प्रस्तुत प्रकरण का निगमन किया गया है। जैसे कि- उक्त गाथा से सिद्धान्त यह निकला है कि चतुर्थ महाव्रत की रक्षा के लिए साधु को शङ्कनीय मार्गों में भी जाना योग्य नहीं है। यहाँ यदि यह शङ्का की जाए कि प्रथम-व्रत-विराधना के अनन्तर एकदम चतुर्थव्रत-विराधना के विषय में क्यों कहा गया है ? तो इसका समाधान यह है कि- चतुर्थ व्रत की प्रधानता दिखलाने के लिए ऐसा कहा गया है। कारण कि चतुर्थ व्रत के न पालन करने से साधु को अनेक प्रकार के असत्यादि का भी प्रयोग करना पड़ेगा। अतएव चतुर्थ व्रत की रक्षा के लिए उपदेश दे देने से शेष व्रतों की रक्षा का उपदेश स्वयमेव हो जाता है। इस पर दूसरी शङ्का यहाँ यह पैदा हो सकती है कि- क्या चतुर्थ व्रत की रक्षा के लिए साधु असत्यादि का प्रयोग कर सकता है ? तो इसका समाधान यह है कि- प्रथम महाव्रत की रक्षा के लिए ही शेष व्रत कथन किए गए हैं अर्थात् असत्यादि से रक्षा नहीं होती, किन्तु सत्यादि के प्रयोग से रक्षा हो सकती है। - जीव का उपयोग एकान्त अर्थात् निर्जन स्थान में जितना स्थिर होता है, बहुजनाकीर्ण और कोलाहल वाली जगह में उतना नहीं होता। बिना उपयोग के स्थिर हुए जीव का कोई भी काम भलीभाँति सफल नहीं होता / सामायिक, स्वाध्याय, जप, तप, मनन, ध्यान आदि कामों में तो उपयोग के स्थिरता की अत्यन्त आवश्यकता है और मुनि-वर्ग का यह कार्य प्रधानतम है / इसलिए उन्हें एकान्त अर्थात् निर्जन स्थान की अत्यन्त आवश्यकता है। इसी लिए वे प्रायः एकान्त स्थान में ही रहते हैं और इसी लिए 'एगंत' का अर्थ यहाँ पर 'एकान्त-निर्जन स्थान' है, अनेकान्त का विरोधी 'एकान्त नय' नहीं है / एकान्त' शब्द के दोनों अर्थ होते हैं। जहाँ पर जो अर्थ संभव हो, वहाँ पर वह अर्थ लगाना चाहिए। यह एकान्त स्थान भी मोक्ष तक पहुँचने के लिए एक प्रधान कारण है। इसलिए मूलार्थ में 'एगंतमस्सिए' का अर्थ 'मोक्षमार्ग के आश्रय में रहने वाला मुनि' किया गया है। .. उत्थानिका- शास्त्रकार अब गमन-क्रिया के यत्न के विषय में और भी विशेष प्रतिपादन करते हैं: साणं सूइयं गाविं, दित्तं गोणं हयं गयं। संडिब्भं[म्भं] कलहं जुद्धं, दूरओ परिवज्जए॥१२॥ 1 'ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते।' दशवैकालिकसूत्रम् 107 ] [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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