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________________ से होकर निकल जाना भी निषिद्ध है, जहाँ पर जाने से उनके त्रिलोकवन्द्य ब्रह्मचर्य के बिगड़ जाने की सम्भावना भी हो। शास्त्रकार का ऐसे सम्भवनीय स्थानों का निषेध करना उचित भी है. क्योंकि यदि व्रत भङ्ग न हुआ तब तो कोई बात नहीं है और यदि व्रत-भङ्ग हो गया तो सर्वस्व नष्ट हो जाएगा। सर्वस्व तो व्रत ही है। इसलिए ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए इस प्रकार के मार्गों से पृथक् रहने की संयमी ब्रह्मचारी के लिए अत्यन्त आवश्यकता है। उत्थानिका-इस प्रकार सूत्रकर्ता ने एक बार गमन-क्रिया के करने का फल तो वर्णन कर दिया, अब पुनः पुनः गमन क्रिया के करने का फल दिखलाते हुए कहते हैं: अणाय [य]णे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं। हुज वयाणं पीला, सामण्णंमि असंसओ॥१०॥ अनायतने चरतः, संसर्गेणा-(सांसर्गिक्या)-ऽभीक्ष्णम्। भवेद् व्रतानां पीडा, श्रामण्ये च संशयः॥१०॥ पदार्थान्वयः-अणायणे-अस्थान में चरंतस्स-चलने वाले साधु को अभिक्खणंबारम्बार के संसग्गीए-संसर्ग से वयाणं-व्रतों को पीला-पीड़ा हुज-होगी अ-फिर सामण्णंमिसंयम के विषय में संसओ-संशय उत्पन्न होगा। मूलार्थ- अस्थान-वेश्यादि के मुहल्लों में चलने वाले साधु को बार-बार के संसर्ग से व्रतों को पीड़ा उत्पन्न होगी और श्रामण्यभाव में संशय उत्पन्न हो जाएगा। : ___टीका- इस गाथा में वेश्यादि के स्थानों में जाने से जो फल उत्पन्न होता है वह दिखलाया गया है। जैसे कि- जिन मार्गों में साधु के लिए चलने का निषेध है, यदि वह उन मार्गों में वेश्यादि के मुहल्लों में- बारम्बार जाएगा तो वेश्यादि के संसर्ग से उसके व्रतों को पीड़ा उत्पन्न हो जाएगी और पवित्र चारित्र में संशय उत्पन्न हो जाएगा। जिसका परिणाम यह निकलेगा कि वह ब्रह्मचारी अपने धारण किए हुए ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हो जाएगा। सूत्रकर्ता ने 'वयाणं''व्रतानाम्' जो बहु वचनान्त पद दिया है, उसका आशय है कि वैसा करने से पीड़ा केवल ब्रह्मचर्य को ही नहीं है, किन्तु षड्व्रतों को भी पीड़ा होगी। जैसे कि अनुपयोग-पूर्वक चलने से हिंसा-व्रत को पीड़ा; पूछने पर असत्य वचन बोला कि मैं उस मार्ग से नहीं गया हूँ तो द्वितीय महाव्रत को पीड़ा; श्री भगवान् की आज्ञा न होने से अदत्तादान-व्रत को पीड़ा; ब्रह्मचर्य-व्रत को पीड़ा तो है ही, साथ ही पुनः पुनः गमन करने से ममत्वभाव बढ़ जाने के कारण पञ्चम महाव्रत को पीड़ा और रात्रि भोजन की अभिलाषा हो जाने से छठे व्रत को भी पीड़ा हो सकती है। इस प्रकार पुनः पुनः गमन-क्रिया करने से षड्व्रतों को भी पीड़ा हो सकती है और संयमभाव में संशय-अश्रद्धा-का भाव उत्पन्न हो जाएगा, वह अलग। उत्थानिका-इसलिए साधु को अब क्या करना चाहिए ? सो कहते हैं:तम्हा एयं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं। वज्जए वेससामंतं, मुणी एगंतमस्सिए॥११॥ पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [106
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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