________________ गति वाले अर्थात् पतङ्गे आदि के उड़ने पर न चरेज-न जाए। मूलार्थ-वर्षा के बरसने पर, धुंध के पड़ने पर, महावायु-आँधी-के चलने पर तथा पतङ्गे आदि के उड़ने पर साधु गोचरी आदि के लिए न जाए। टीका-गाथोक्त परिस्थिति उपस्थित हो जाने पर साधु गमन न करे। क्योंकि इस प्रकार करने से आत्म-विराधना तथा संयम-विराधना दोनों के होने की सम्भावना है तथा लोक-पक्ष में भी अपवाद का हेतु वह गमन करने वाला मुनि बन जाएगा। अतएव उक्त पदार्थों के होते हुए मुनि गोचरी के लिए न जाए। गोचरी के लिए ही साधु उक्त परिस्थिति के उपस्थित ने पर गमन न करे. यही बात नहीं है बल्कि उपलक्षण से अन्य क्रियाओं के लिए भी साध न जाए' यह भी अर्थ यहाँ ग्रहण करना चाहिए। हाँ, यदि कोई शारीरिक क्रियाएँ करनी हों तो उन क्रियाओं के निरोध करने का उल्लेख शास्त्र में नहीं है। जैसे कि- मल-मूत्रादि की चिन्ता दूर करने के लिए जाना पड़ जाए तो उक्त समय में साधु को गमन करने का निषेध नहीं पाया जाता। कारण कि उन क्रियाओं के निरोध करने से असाध्य रोगों के उत्पन्न होने की सम्भावना की जा सकती है, जिससे फिर बहुत से कारणों-विघ्नों के उपस्थित हो जाने का समय उपलब्ध हो जाएगा। उत्थानिका-इसी प्रकार से शास्त्रकार और भी कहते हैं:- न चरेज वेससामंते, बंभचेरवसाणु-(ण)-ए। बंभयारिस्स दंतस्स, हुज्जा तत्थ विसुत्तिआ॥९॥ न चरेद्वेश्यासामन्ते . , ब्रह्मचर्यवशानयने / ब्रह्मचारिणो दान्तस्य, भवेदत्र विस्त्रोतसिका॥९॥ ‘पदार्थान्वयः-बंभचेरवसाणुए-ब्रह्मचर्य को स्ववश में करने वाले अर्थात् नाश करने वाले वेससामंते-वेश्या के समीप के स्थानों में न चरेज-न जाए तत्थ-वहाँ दंतस्स-जितेन्द्रिय बंभयारिस्स-ब्रह्मचारी को विसुत्तिया-अपध्यान-संयम रूप धान्य के सुखाने वाला मनोविकार हुजा-उत्पन्न हो जाएगा। मूलार्थ साधु , ब्रह्मचर्य का नाश करने वाले वेश्या के समीप के स्थानों में न जाए, क्योंकि इन्द्रियों का दमन करने वाले ब्रह्मचारी को वहाँ पर संयम रूपी धान्य के सुखाने वाला मनोविकार उत्पन्न हो जाएगा। टीका-यद्यपि यह नियम नहीं है कि वेश्याओं के मुहल्लों में होकर निकल जाने से या उनके मुहल्ले में जाने से ब्रह्मचर्य का नाश नियम से हो ही जाए। कभी-कभी ब्रह्मचर्य का नाश वहाँ जाने से या उधर होकर निकल जाने से नहीं भी होता। कभी-कभी क्यों, प्रायः नहीं होता है। बल्कि यों कहना चाहिए कि होता है तो कभी-कभी होता है अर्थात् संयोगवश तीव्र कर्मोदय से कभी किसी साधु के साथ इस प्रकार की अनर्थकारी घटना घटी हो तो घटी हो। इतने पर भी शास्त्रकार ने वहाँ जाने का अथवा उधर से जाने का जो सर्वथा निषेध किया है, उसका यह मतलब है कि शास्त्रकार उस संसर्ग का भी निषेध किया करते हैं, जिससे संयम के बिगड़ जाने की सम्भावना मात्र हो। इसलिए साधु का उस स्थान पर जाना या उस स्थान के पास 105 ] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्